कक्का जी कहिन

जाने-माने कथाकार-पत्रकार हिंदी के सुपरिचित नाम हैं। उन्होंने माया से पत्रकारिता की शुरुआत की। फिर धर्मयुग, प्रभात खबर, लोकमत समाचार आदि में वरिष्ठ पदों पर रहे। फ़िलहाल रिटायर्ड जीवन और खूब घना लेखन। पूर्वांचल के ग्राम्य जीवन के रहन-सहन, सोच-विचार और क्रियाकलाप को लेकर उनकी किताब `कक्का जी कहिन’ जल्द ही प्रकाशित होने जा रही है। पढ़ें, जरा आज से कुछ साल पहले के गाज़ीपुर जिले के सैदपुर के एक कायस्थ परिवार के कक्का जी और उनकी मलकिनी की दिनचर्या — किताब से दो कथा-अंश

कक्का और सावन कक्का हाता से निकले ही थे कि मालकिन चाय और पकौड़ी सामने रखते हुए कहने लगीं ” बिरवाई कैसी है ? पानी बरस गया है ,अब तरकारी बाढ़ पर आयेगी।”
“अभी हाता में गये थे ।सरपुतिया , नेनुआ, करेला , भिंडी सब ठीक है । कोहड़ा और लौकी पूरा फैल गये हैं चहारदीवारी पर चढ़ गये हैं। लेकिन लौकियां तितलौकी न निकल जाए।बस यही एक शंका है ।” कक्का ने कहा ।
” नहीं निकलेगी ।फूआ कह रही थीं कि प्रसाद वाला बीज है ।” मालकिन अभी बता ही रही थीं कि सामने से सोना फुआ आ रही थीं । उनके आते ही मालकिन ने हल्का सा घूंघट निकाल लिया और फूआ का पैर दबा कर छुआ और कक्का खटिया के ओनचन की ओर बैठ गये और फुआ को मुड़वारी बैठने के लिए कहा ।
” कहो भइया तोहार मेहरिया बच्चा बियाय के बिहाह गवन कर दी है,सोठउरा भी गांव भर बंटवा दी है और अबहिनों हाथ भर घूंघट निकालती है? और अब की बहुरियन को देखो तो झोंटा खोल के गांव गोइंठ देती हैं ।” फुआ ने खटिया पर बैठते बैठते बोल गयीं ।
सोना फुआ बिधवा थीं ।बाल बच्चा था नहीं तो मायके में ही रह गयीं । उनकी शादी सारनाथ के पास एक गांव में हुई थी । शादी के एक दो साल बाद ही पति की मृत्यु हो गई , तो कक्का के पिता जी और बिरादरी के सभी लोगों ने गांव में ही रहने की सलाह दी तब से वह सभी के साथ परिवार की तरह ही रहने लगीं।जबान की मुंहफट लेकिन दिल मोम का था ।गाली का शब्द भंडार विशाल था ।नयी आई बहुएं सास से भले न डरें लेकिन फुआ को देखते ही परान सूख जाता था लेकिन रहते रहते वे भी फुआ के सर्वभाव जब परिचित हो जाती थी तो फुआ की इज्जत पानी भी खूब करती थीं। सोना फुआ सारे गांव की फुआ थीं , बिटिया थीं। बच्चों को बहुत प्यार करतीं और उनके हगनी मुतनी से घिन्नाती नहीं थीं । कायस्थ लोगों के परिवार में शादी बिवाह के मौके पर भी उनकी सगी बिटिया से बढ़कर सम्मान मिलता था । सभी की मुंहलगी थीं ।
खटिया पर इत्मीनान से बैठने के बाद कक्का से उन्होंने कहा ,” का भइया बुचिया को नहीं बुलाओगे क्या ? “
” बुलायेंगे फुआ ,भला बुचिया को नहीं बुलायेंगे ? “
” कब जब सवनवां बीत जाई तब ? “
” नाहीं , दिन धरा गया है । गुड्डू को जब फुर्सत मिल जाएगी,तब जाकर बिदा करा लायेंगे ।” जवाब मालकिन ने दिया ।
” ई गुड्डुआ मरकिनौना कहां रहता है कि बहिन को बिदा कराने की फुरसत नहीं मिलती ? अभी हम कहते हैं कि कल सबेरे जाय और शाम तक बिदा करा कर आ जाय ।कवन दूर है बनैरसै ( बनारस ) जाना है । बहुत दिन हो गया बुचिया को देखे ।” फुआ ने आगे पूछा “, बिदाई का सब इंतजाम हो गया है कि ऊ सब भी गुड्डू के मत्थे ? “
” नहीं फुआ ,सब इंतजाम हो गया है ।बस जाना और लिवा के आना है ।” मालकिन ने कहा ।
” अरे चुडिहारिन को भेजे थे आई थी ? “
” हां आई थी ।चार दर्जन बढ़िया कामदारी चूडी बुचिया के लिए और दू दर्जन हम पहिन लिये ।” मालकिन ने कहा और अपनी हाथ की चूड़ी फुआ को दिखाने के लिए दोनों हाथ आगे बढा दिया ।फुआ ने देखा और खुश हो गयीं ।
” पिया मेहंदी लिया दा मोतीझील से जा के साइकिल से ना ।” फुआ ने मन ही मन गुनगुनाया ,जिसे मालकिन ने सुन लिया ।” आगे की लाइन भी सुनाईं न फुआ ” ” मेहंदी मगइबै छोटी ननदी से पिसइबै , ओके लगाइब कांटा कील से । जा के साइकिल से ना ।” कहकर फुआ ने कक्का की तरफ देख कर कहा ,” ए भइया उठावा साइकिल अउर ,जा के मोतीझील से मेहंदी लिया दा।” और हंसने लगीं ।” गांव में तो इतना मेहंदी का पेड़ था कि कहीं जाने की जरूरत ही नहीं ।और मोतीझील , वहां मेहंदी तो छोड़ , मोतीझील मिल जाए तो बड़ी बात है । इतना मकान,माल, दुकान बन गया है कि तुमको का बतायें। नहीं तो एक समय था कि रथयात्रा चौमुहानी से मड़ुआडिह स्टेशन तक कुछ नहीं था। जाने में शाम के बाद डर लगता था ।एक आदमी नहीं दिखाई देता था ।चिरई न चिरई क पूत ।बस इक्का दुक्का आदमी दिखाई देता था । अब तो इतनी भीड़ कि सड़क पार करने में ननिआउर याद आ जाय ।” कक्का ने कहा ।
” हम जब शादी हो कर आये तो हमारी पहली तीज थी ।हम सब तिवारी बाबा के दुआरी से हो कर सबेरे लोटा लेकर जाते थे , तो वहीं मेहंदी के झाड़ के पास आड़ मिलता था। वहीं बैठ कर हलके भी होते थे और मेहंदी भी तोड़ लाते थे । छुटकी से नहीं बनता था , तो डाल ही तोड़ लाती थी ।और मेहंदी इतनी अच्छी कि सील पर पीसते पीसते हाथ में लग जाय । बहुत संभाल के पीसना पड़ता था ।हाथ में लगाने के बाद इतना बढ़िया मेहंदी रचती थी कि महिन्नन नहीं छूटती थी ।” मालकिन ने ऐसा मेहंदी का बखान किया कि फुआ मुंह ताकती रह गयीं ।
” अब तो सब रस्मो रिवाज खत्म हो गया । नहीं तो पहले सावन में जिसके मुंह से सुनो कजरी ही निकलती थी ‘ कइसे खेलै जाबू सावन में कजरिया , बदरिया घिरि आई ननदी ।अउर एक गीत कुंजबिहारी की दुलहिन गाती थीं ,हरे रामा रिमझिम बरसेला पनियां चली तो आओ जनिया रे हरी ।’ ऊ समय की बात ही दूसरी थी ।” इधर अजीत मास्टर के नीम के पेड़ पर झूला पड़ता था।कैलाश और ठकुरान की बहू बेटी पूरा सावन झूला झूलती थीं । बिरजू सिंह और नरेश सिंह की औरत पटेंग मारने में इतनी तेज थीं कि दोनों ओर नीम के पेड़ की फुनगी छुआ देती थीं ।बहुएं भी ऐसी कि पटेंग जितनी तेज ,कजरी की आवाज भी उतनी तेज।” फुआ ने अतीत को जैसे दुआरी पर खड़ा कर दिया।
” सावन में कजरी का महत्व ही अलग है । बनारस और मिर्जापुर में आदमी लोग गोल गोल घूमते हैं और झूम कर गाते हैं । मिर्जापुर की कजरी बताते हैं कि पूरे हिन्दुस्तान में फेमस है । कजरी मिर्जापुर सरनाम कहा जाता है। पहले के आदमी औरत सभी दिलचस्पी लेते थे । लोकगीतों का बड़ा महत्व था।” कक्का ने कहा।
” अब तो सब भरसाईं में झोंकने लगे हैं । नागपंचमी को औरतें दूध लावा नाग देवता को चढाती थीं।अब तो संपेरा भी नहीं आते। नहीं तो पहले आते थे ,नाग देवता का दर्शन कराते थे ।सिद्धा पिसान ले जाते थे।
” बनारस में भोलेनाथ की नगरी होने के कारण बडा महत्व है ।एकदम बिहाने बिहाने लड़के चिल्लाने लगते हैं ‘ छोटे गुरू और बड़े गुरू का नाग ले लो ‘ लोग खरीदते हैं और बाहर के दरवाज़े के दोनों पल्लों पर चिपका कर नागदेवता को पूजते हैं। हमारे यहां तो भादों में तीज होती है, लेकिन दिल्ली के तरफ हरितालिका तीज मनाई जाती है । औरतें भर हाथ मेहंदी लगाती हैं और बड़े श्रद्धा से इस परब को मनाती हैं।’ फुआ ने बताया ।
” रक्षाबंधन भी तो इसी महीने में होता है ।बड़की बहिन बड़े प्रेम से सबेरे उठते ही शोर मचाने लगती थी ‘ चल नहा ले ,हम तोहरे पसंद की मिठाई मंगाते हैं ।’ हम थोड़ा सा चिढा देते थे तो जैसे दुःखी हो जाती थी ,’ अरे मोर राजा भइया , बदमाशी जिन करा ,जा नहा के जल्दी आओ ।त्योहारा दिन मार खाने का काम मत करो।’ राखी बांधते समय गंभीर हो जाती थी । मिठाई खिलाने के बाद जब उसका पैर छूता था, तो अंकवारी में भर लेती थी और छाती से चिपका कर रोने लगती थी,’ से ईश्वर हमरे भइया के हमरो उमिरिया लग जाय’ बोल कर आशीर्वाद देती थी ।अब ये साल के राखी बांधी ? ” इतना बोल कर कक्का गंभीर हो गये। आंखें छलछला आयी थीं । फिर थोड़ी देर में अपने को संयत करते हुए कहने लगे ” अरे नागपंचमी का दंगल तो अपने आप में अलग ही आनंद देता था।
” रामराज बाबा के पूरा पर सभी पूरा छोटे बड़े सभी पहलवान इकट्ठा होते थे। बजरंगबली का नाम लेकर सभी आपसी कुश्ती लड़ते थे ।और सबसे मिलना जुलना भी हो जाता था । बड़ा एक दूसरे के प्रति प्रेम व्यवहार था । बड़का दंगल पोखरा पर होता था । पूरे इलाक़े के पहलवान आते थे उस दंगल में ।अब तो अखाड़ा ही नहीं है तो दंगल तो दूर की बात है। लड़कों के अंदर जोश और शौक दोनों नहीं है।सब शहर के रंग में रंगे हुए हैं। लंगोट पहनना भाता ही नहीं है।” कक्का ने अपनी बात समाप्त की तो सोना फुआ को याद आ गया कि जलेबिया बर्तन मांजने आती होगी ।”बहुत देर हो गयी जलेबिया आयेगी तो किवाड़ी बंद देखेगी तो लौट जाएगी ।हम चलते हैं और देखो कल बुचिया सांझी तक आ जानी चाहिए।हम अभी गुड्डू को बुला कर डांट कर बोल देंगे ।और सुनो आने के साथ ही पाहुर गांव में बंटवा देना आज हम नउनियां को सहेज देंगे ।” इतना कहकर फुआ चली गयीं और मालकिन चाय का कप उठा कर घर के अंदर गयीं । कक्का बीड़ी का बंडल और दियासलाई तकिया के नीचे से निकालने लगे।
नैहर – गंगा नहीं छूटतीं
कक्का की निगाह सवेरे से सड़क पर टिकी थी ।सात वाली और आठ वाली बस निकल चुकी थी , लेकिन मलकिन नहीं आयीं । कक्का मना किया था कि ” मत जाओ परयाग संगम नहाने , हाड़ कंपाने वाली ठंड पड़ रही है , जाओगी तो बीमार पड़ जाओगी ,कोरोनवां भी अभी भागा नहीं है , गंगा के पानी में कैसे नहाओगी ? ” लेकिन ,मलकिन चिरौरी करने लगीं ,” नैहर गंगा कभी छूटता है ? जाये देईं जब तक पौरुख है , नहा धो लेईं नहीं तो फिर हाथ गोड़ असक हो जाएगा,तब कहां जाना हो पायेगा ।”
कक्का क्या कहते ,हामी भरनी ही पड़ी और मलकिन चन्नर दोनों परानी और तिवराइन संगम नहाने चली गयीं ।बोल के गयी थीं कि संक्रांति के दिन बिहाने संगम में दू डुबकी लगाने के बाद उसी दिन शाम को चाहे दुसरे दिन बिहाने सभी लोग चले आयेंगे । लेकिन दू बस निकल गयी और आयी नहीं ।
एक समय वह भी था कि घोड़ा गाड़ी कुछ नहीं था।औंरिहार स्टेशन तक पैदल जाना पड़ता था ।चार कोस जाना पड़ता था । संक्रांति के एक दिन पहले आठ बजे मलकिन ,चन्नर दोनों परानी ,उनकी माई साथ में तिवराइन और उदयी की बड़की भौजी गठरी मोटरी लेकर चली जाती थीं ।छपरहिया बारह बजे आती थी ।चन्नर बाटुर टिकट लेकर सबको गाड़ी में बैठा कर अपने जगह मिलती तो बैठते नहीं तो खड़े खड़े ही जाते थे । मेहरारू सब भजन कीर्तन करतीं ,और चन्नर सुर्ती मलते खाते और कोई हथेली आगे आती तो उस पर भी रख देते ।गाते बजाते समय का पता ही नहीं चलता था ।
पांच बजे गाड़ी दारागंज स्टेशन पर उतारती । उतरने के साथ ही संगम की ओर पैदल रवानगी हो जाती ।चन्नर की माई को दिक्कत होती तो चन्नर माई को कोरां में उठा लेते ।माई पैंड़ा भर असीसती जाती ।
घाट पर पहुंचते ही सब लोग गठरी मोटरी रख कर नहाने के लिए कपड़ा लत्ता निकालते तब तक चन्नर माई को डुबकी लगवा कर और खुद भी पांच डुबकी लगा कर आ जाते । उसके बाद कुल मेहरारू लोग नहाने जातीं और चन्नर सामान अगोरते रहते ।
स्नान करने के बाद परिचित पंडा के पास जाकर टीका सीका लगवाते ,दान दक्षिणा देते । फिर सतुआ बाबा के कैंप में चले जाते । वहां घर से लाया गया ठोकवा पूड़ी अचार भुजिया खा कर घामे में बैठ कर आराम करते ।
थोड़ी देर आराम करने के बाद बाजार की ओर सब चले जाते ।खाजा अनरसा रेवड़ी खरीदी जाती । पसंद आ गया तो कान की बाली ,कामदारी चूड़ी टिकुली की भी खरीदी हो जाती ।लड़िका पतोह सब खुश हो जाएंगे ।
गाड़ी फिर वही बारह बजे के बाद ही मिलती थी ।चन्नर दो हंड़िया लेकर आते गोहरी भी मिल जाती थी ।तिवराइन पिसान सान कर मकुनी भर कर भौरी बना कर रख लेती थीं । आलू और रामनगर का भंटा अहरा में पकने के लिए पहले ही डाल दिया जाता था । जैसे ही चावल दाल की हंड़िया अहरा पर से उतरती ,तिवराइन भौरी अहरा पर रख देतीं फिर उलट पलट कर सेंक सांक के तैयार कर देतीं । मलकिन देशी घी का डब्बा पकड़ा देतीं । कटोरा में तेल डालकर लेहसुन मर्चा से उदयी की माई झौंक लगा देतीं दाल में । फिर आराम से चदरा बिछकर पत्तल में खाना पीना होता ।बच जाता तो किसी को खाने के लिए दे दिया जाता ।अन्न है , फेंकने से क्या फायदा ,कम से कम किसी का पेट तो भरेगा । बड़ा मेहनत से अन्न मिलता है ।चन्नर की माई बूढ़ पुरनियां ,उनको नींद नहीं आती थी ।सब सो जाते और गाड़ी का समय होता तो जगा देतीं ” उठा सब लोग गाड़ी का टेम हो गया है ।”
फिर बाटुर टिकट आता और थोड़ा पहले पहुंचने से सीट मिल जाती थी । सुरुज नरायन के निकलते निकलते औड़िहार स्टेशन पर गाड़ी आ जाती थी । गाड़ी से उतरते ही मुसाफिरखाने में आ कर बैठ जाते थे । मलकिन को औड़िहार स्टेशन की पकौड़ी बहुत अच्छी लगती थी ।चार चार आने की पकौड़ी सबको खिलातीं और चाय पिलातीं ।तब तक धूप निकल आती थी ।बारह बजते बजते सब घर पहुंच जाते थे ।
आते ही बाल बच्चे घेर लेते ।सबका सामान सबको बांट दिया जाता ।पतोह खाना पहले ही बना कर रखती । खाना खाने से पहले टिकुली चूड़ी पतोह को दे कर यह पूछना जरूरी था ,” कैसा लगा दुलहिन “? दूलहिन खुश हो जाती और खाना खाने के बाद सास का गोड़ दबाना नहीं भूलती ।
लेकिन अब तो घोडा गाड़ी इफरात में है ।जब आओ जाओ कोई टेंशन नहीं ।कक्का अतीत से वर्तमान में आये, तो मलकिन के साथ सभी आते दिख गये तो कक्का इत्मीनान से गैया की हौदी में सानी चलाने लगे ।
लेकिन एक बात है कि चन्नर की माई का मरते दम तक न नैहर छूटा न गंगा ।

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