जब सरकारी कारनामे ने संत को ग्रसा

सुप्रसिद्ध पत्रकार मनोहर नायक द्वारा संत विनोबा की याद

जनसत्ता’ में डिप्टी न्यूज एडीटरी करते हुए एक मुख्य काम टेलीप्रिंटरों से आने वाली खबरों को यथास्थान पहुंचाना था… पीटीआई, यूएनआई, भाषा, वार्ता के अलावा ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की एजेंसी ईएनएस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एजेंसी भी थी, ये निरंतर ख़बरें उगलती रहतीं | हर आध-पौन घंटे में डेस्क पर अंबार लग जाता… मेरी डेस्क पर एक तिमंजिला ट्रे थी, जिसमें मैं खेल , व्यापार और लोकल ख़बरें छांटकर नियत ख़ाने में रख देता, कुछ ख़बरें अंदर के पेजों के लिये जनरल डेस्क को देता रहता, पहले पन्ने के लिये कुछ डेवलपिंग स्टोरी अपने पास रखता |
कई साल पहले, वह शायद नौ या दस सितम्बर का दिन था, मैं हमेशा की तरह छंटाई कर रहा था कि फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक बड़ी- सी स्टोरी पर ठिठक गया… यह विनोबा पर थी…. विनोबा के प्रति पैतृक रूप से दिल कुछ नरम रहा है, तो उसे पढ़ने लगा, थोड़ी पढ़ी पर मन शुरूआत में अटका रहा | उस रपट के शुरुआती शब्द थे… मैग्सेसे अवार्ड विनर विनोबा… मैं यह पढ़कर चकित , सोचने लगा कि क्या विनोबा महज एक मैग्सेसे पुरस्कृत नाम है , क्या… क्या रवीन्द्रनाथ एक नोबेल विजेता का नाम भर है ! इन्हीं विचारों में उलझा – पुलझा मैंने वह फीचर रिपोर्ट फेंक दी | आज अपन जो भी, जैसा भी सोचते – विचारते हों , बचपन से हमारे घर में विनोबा का नाम उसी तरह एक जाना – पहचाना,पारिवारिक -सा नाम था जैसे कि गांधी, नेहरू, जेपी, लोहिया, महादेवी ( माँ, गायत्री नायक की गुरु) का नाम | पिता गणेश प्रसाद नायक स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस से शुरू कर फारवर्ड ब्लाक , सोशलिस्ट पार्टी होते हुए सर्वोदय में आ गए थे | आचार -विचार पहनावे में बड़ा सर्वोदयी क़िस्म का बचपन गुज़रा | यह सारा जगत सर्वोदय ही,जैसा जीवन था … खादी थी, चरखा था, तकली थी, पोनी थी, प्रार्थना थी… कहीं बाहर से एक सर्वोदयी वरटकर जी आते, पास ही के सर्वोदय कार्यालय में कई दिन ठहरते और रोज़ शाम बच्चों को कहानियां सुनाते और प्रार्थना कराते… नाममाला , एकादश व्रत और गीता के दूसरे अध्याय का पाठ, जो स्थितप्रज्ञता पर है… लेकिन संस्कृत में नहीं , हिंदी में… उसका अत्यंत सहज भावानुवाद… जो कुछ इस तरह था :जो शुभाशुभ को पा के , न तो तुष्ट न रुष्ट हैइंद्रियाँ जिसने जीतीं, प्रज्ञा हैं उसकी स्थिरा | दुख में जो अनुद्विग्न , सुख में नित्य निस्पृह अहंता ममता मुक्त , मुनि है स्तिथी वही |भोग तो छूट जाते हैं निराहारी मनुष्य केरस किंतु नहीं जाता, जाता है आत्मज्ञान से|नहीं बुद्धि अयोगी के, भावना उसमें कहाँ अभावन कहां शांत, कैसे सुख अशांत को | कूर्म निज अंगों को, इंद्रियों को समेट ले सर्वश: विषयों से जो, बुद्धि है उसकी स्थिरा | निशा जो सर्व भूतों की, संयमी जागते वहाँ जागते जिसमें अन्य, वह तत्त्वज्ञ की निशा |
ये बीच -बीच से कुछ उद्धरण थे … करीब साठ वर्ष बीत चुके हैं, पर यह याद है | बाहर भी माहौल में निपट सादगी, सुस्ती और सन्नाटा था, प्रार्थना का ही पसारा था | वीतराग सी दिनचर्या थी | यह विनोबा भावे का समय था… साठ के दशक तक उनकी लोकप्रियता बेशुमार थी… उनका भूदान आंदोलन ज़ोरों पर था, जिसको लेकर कुतूहल, जिज्ञासा और संदेह भरपूर थे, राजनीतिक मुहावरे बाज़ी में पारंगत और उससे आक्रांत मीडिया को देसी और आध्यात्मिक भाव- भंगिमा वाले बाबा हमेशा अटपटे लगे और आधे – अधूरे समझ आये…. पर अपन को तो लगता था कि सर्वोदय ने अपना उदय दबोच रखा है पर कोई चारा न था इसलिये साइकिल पर हाथ जमते ही उसकी तेज़ रफ़्तार जैसे सारी सुस्ती , सन्नाटे का विरोध और निषेध हो गयी… बहुत कुछ जैसे अपने हाथ आ गया —अपनी साइकिल अपनी राह | ठेठ साइकिल- युग था वह…. शहर में हाथ छोड़कर साइकिल चलाने की जगहें और मौके इफ़रात थे… देश का वातावरण और मनोदशा भी यही थी … कांग्रेस हाथ छोड़कर साइकिल सरपट दौड़ा रही थी | उसके साइकिल बाज़ हुनरमंद थे, ऐन चुनावी भीड़भाड़ में दोनों हाथों से हैंडल थाम आड़ी -तिरछी चलाते हुए वे निकल जाते ; दूसरे सब हाथ मलते रह जाते | समाजवादी, वामपंथी, जनसंघी और अन्य न उसे रोक पाते, न झेंक पाते | हालांकि राजनीति को पूरी तरह कुलच्छी होने में देर थी… अपने पराक्रम से हार थककर विपक्ष के ये दल एक दूसरे के साथ इस सबसे निस्संग को भी कोसने लगते… मसलन , विनोबा को… उन्हें लगता कि ये विनोबा उनके पक्ष में क्यों नहीं आता… चिढ़कर सब उन्हें सरकारी संत कहने लगे… हमारे सर्वोदयी संस्कार प्रबल थे, अतएव यह अच्छा नहीं लगता था , या यह कहा जा सकता है कि इस मत के पलटने के दिन अभी दूर थे | शायद यह सरकारी कारनामा था, जिसने संत को ग्रस लिया | तब बाबा विनोबा की संत के नाते धूम थी,, उनके भूदान आंदोलन को लोग चकित से देख रहे थे… वे देश को पैदल नाप रहे थे…इस पदयात्री को देखने भीड़ उमड़ती थी | सरकार और कांग्रेस को संतत्व की इस लोकप्रियता से अपने लिए सहानुभूति सोखनी थी, इसलिये बाबा कहीं आते -जाते तो वह दलबल के लिए कुछ सुविधा जुटा देती | विनोबा ने न कोई मांगी और न विरोध किया… वे अविरोध वाले व्यक्ति थे | मीडिया उनसे बेपरवाह था कि वे उस तरह ‘ ख़बरदार ‘ व्यक्ति नहीं थे . उनका लेना- देना भी शहरों से नहीं गांव -जमीन से था, बोली- बानी सीधी पर अटपटी कि राजनीति के पोथीनिष्ठ पत्रकार उसे पकड़ने में बेबस थे |
पर उनकी लोकछवि बड़ी थी | वह स्वयं अर्जित थी, गांधीजी ने उस पर मोहर लगायी थी… विनोबा की श्रम साधना , सेवा, अध्ययन-मनन- शिक्षण, स्वावलंबन, अनासक्ति से गांधी गहरे प्रभावित थे | सी एफ एंड्रूज से विनोबा के बारे में गांधीजी ने कहा था, ‘ ये हमारे आश्रम के उन रत्नों में हैं जो यहाँ आशीर्वाद लेने नहीं बल्कि आश्रम को अपने आशीर्वाद से पवित्र करने आये हैं ‘ | 1940 में उन्होंने विनोबा को पहला व्यक्तिगत सत्याग्रही बनाया और ‘हरिजन’ में ख़ुद लिखकर बताया कि ये विनोबा कौन हैं | एक प्रवचन में गांधीजी द्वारा अपना नाम पेश करने पर विनोबा ने कहा कि मेरा नाम नहीं था, कोई बड़ा राजनीतिक काम नहीं था, फिर भी और जो भी गुण उन्होंने देखे हों एक गुण यह अवश्य देखा कि इसका दिमाग़ रचनात्मक है, विध्वंसक नहीं | इससे स्पष्ट है कि सत्याग्रही के लिये वे रचनात्मक काम आवश्यक मानते थे |
यह मेरा विनोबा प्रेम नहीं पर निश्चित ही ज़माने से गिला है | वे अपनी तरह से अपने काम में लगे थे… जमीन की समस्या का वे समाधान ढ़ूंढ़ रहे थे, वे गांधी की ह्रदय परिवर्तन की विधि को कारगर मानते थे और घूम घूमकर लोगों से अपनी भूमि का छठा हिस्सा दान में मांगते थे … दान में विवादित, बंजर जमीन दी गयी … फर्जी भूदान हुआ पर शायद उस आंदोलन की कुल कहानी इतनी भर नहीं है | विनोबा किसी के प्रतिस्पर्धी नहीं थे , अपनी लोकप्रियता को अपने कामों से इतर कभी भुनाया नहीं… पार्टी नहीं बनायी, सत्ता की कामना कभी की नहीं…. गांधी- विनोबा- जयप्रकाश कभी उम्मीदवार नहीं बने| विनोबा निरपेक्ष रहे सरकार या किसी का अवलम्बन नहीं लिया | … गिला यही है कि राजनीतिक जमातों समेत बड़ा वर्ग इस प्रयोग को हजम नहीं कर पाया, जबकि यह अहिंसक था, लड़ाने फूट डालने,जनता में विष बोने, उसे विभाजित करने का कोई ऐजेंडा नहीं, उल्टे लोगों को जोड़ने की भरसक कोशिश. कोई धरना, प्रदर्शन, घेराव, नारे नहीं, प्रचार नहीं, कोई जुमलेबाज़ी नहीं |
ज़रा सोचिये देश में कितनी तरह के प्रयोग चलते रहे हैं, तब आचार्य के अहिंसक प्रयोग पर इतनी नाक- भौंह क्यों सिकोड़ना… एक प्रयोग और सही | आज़ादी के लिए इतना बड़ा आंदोलन चला पर स्वतंत्रता आधी- अधूरी ही रही… बहुत काम भी हुआ, पर आज़ादी के चौबीस साल बाद इंदिराजी ‘ ग़रीबी हटाओ ‘ के लिए जैसे सोते से उठीं | एक उम्मीद देते हुए जेपी पटना के कदमकुआं से निकले कि, ‘ तीर पर कैसे रुकूँ मैं / आज लहरों में निमंत्रण ‘… जनता कुछ अंगड़ाई सी लेती दिखी, तब मैडम को लगा कि सड़क पर क्यों आए जनता बेचारी, घर बैठे, काम हम किये देते हैं और उन्होंने इमरजेंसी के बंजर में बीस फूल खिलाने की दारुण कोशिश की… आज भी जनता, नेता, पार्टियां घरों में है और बाहर सरकार सब ऐजेंडा निपटाये दे रही है और स्थितियां कई गुनी त्रासद … इमरजेंसी के बाद जोशो ख़रोश से ‘ जनता ‘ महास्वप्न साकार किया गया जो कलही और निकम्मी राजनीति के कारण आशंका से पहले ही फूल-सा झर गया | फिर नयी उमंग , ताज़गी और भ्रष्टाचार हटाने के प्रयोग,..सरकार बनाने के और उन्हें न चलाने के प्रयोग… अचानक दिल्ली पर लाल सितारा चमकने की उम्मीद वाली एक पगलायी-सी ख़ुशी और उसके अघटित होने का मलाल | और कितने कितने प्रयोग… वसंत गर्जना नक्सलबाड़ी प्रयोग, समाजवाद, साम्यवाद,सप्त क्रांति , सम्पूर्ण क्रांति के प्रयोग , मंडल – कमंडल के प्रयोग, बहुजन और सामाजिक न्याय के प्रयोग , एनडीए, यूपीए के प्रयोग | संविद सरकारों से गठबंधन सरकारों के, चुनी हुई से हड़पी सरकारों तक, ग़ैर कांग्रेसवाद से कांग्रेसमुक्त तक कितने प्रयोग हुए… तीन दशकों से विध्वंस, तोड़- फोड़, तहस- नहस करने के तानाशाही के और बर्बाद अच्छे दिनों के प्रयोग,.. सत्ता की ताक़त, शटडाउन, धन -बल के प्रयोग… कल्याणकारी से बाज़ार – उदारवाद – कॉरपोरेटवाद के प्रयोग… अरबों- खरबों उड़ा- खपा देने वाले जानलेवा कितने प्रयोग चले और चल रहे हैं… पहले देश का नाता सत्य के प्रयोग से जुड़ा अब पाला असत्य के प्रयोगों से पड़ा है | … पर बाबा और उनके अनूठे प्रयोग से देश उकता गया था | अंतिम दिनों में गांधीजी को अपनी सफलता संदिग्ध लगने लगी थी…. सत्तर आते- आते विनोबा और उनका मिशन असंदिग्ध रूप से असफल होता दिया रहा था | पूंजी के लिए बदहवासी के आलम में वंचितों के लिये एक पैसा रोज़ वाले विनोबा के दान-पात्र के मटके को फूटना ही था, अनुदान के आगे दान के पैर उखड़ने ही थे…. लूट- खसोट के दौर में उनकी बेशक़ीमती बात ‘ बिन श्रम खावे, चोर कहावे ‘ को धूल ही फांकनी थी| संशय, अविश्वास और नफ़रत के माहौल में उनके , ‘सत्य, प्रेम, करुणा ‘ को मुंह छिपाने को घर नहीं मिलने वाला था और जब सब आपस में भिड़े हुए हैं ऐसे में जय-जगत की क्या बिसात ! विनोबा यह सब ख़ुद समझ रहे थे इसलिए वे अपने को सीमित करते गए और पवनार में स्थिर हो गये… क्षेत्र सन्यास ले लिया…. और देखते ही देखते शेष जगह उन सब चीज़ों भर गयीं जिनकी आशंकाएं चमचमा रही थीं | प्रतीक रूप में देखें तो विनोबा के गमन ( 15 नवम्बर, 1982) के साथ ही देश की परम्परा, विरासत, विविधता, सद्भाव और लोकतांत्रिक मिज़ाज ने कुम्हलाना शुरू कर दिया था |
विनोबाजी को पहली बार नवम्बर 1961 में देखा था जब पदयात्री के रूप में वे पहली बार जबलपुर आये थे… वे उनकी धूम वाले दिन थे | शहर के सेठों, गोविंद दास, परमानन्द पटेल, व्यौहार राजेंद्र सिंह आदि ने दान देने की शर्त रखी कि बाबा को उनके यहाँ ठहराया जाये, हमारे पिता ने इसे अस्वीकार किया और जन सहयोग से राइट टॉउन मैदान में कुटिया बनवाई… विनोबा का बहुत सत्कार हुआ, बड़ी सभा हुई, खूब साहित्य खरीदा गया… उन्होंने कहा कि इस शहर में संस्कार हैं और जबलपुर को संस्कारधानी नाम दिया| बारह नवम्बर की सुबह चार बजे वे मित्र मिलन के लिए निकले.. पहले बापू बाल समाज गए जिसे एक तमिल कृष्णास्वामी चलाते थे | यहाँ से वे दीक्षितपुरा में हमारे घर पांच बजे आये… उन्हें मालूम था कि गणेश नायक के छोटे भाई सन्यासी हैं ( वे स्वामी अखंडानंद सरस्वती के शिष्य थे, प्रेमानंद सरस्वती ‘दादा’ )| विनोबा घर में ‘ जय गणेश ‘ कहते हुए अंदर गए और सीधे आंगन में जाकर भगवान के चबूतरे के पास एक मिनट हाथ जोड़कर खड़े रहे फिर आकर घुटनों के बल मेरी आजी के पास बैठ गए और उनका एक हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर बोले, ‘ मां तू जीवन में कभी दुख न करना, तेरा एक बेटा भगवान की सेवा में है और दूसरा देश की सेवा में | फिर बगल के कमरे में पिताजी ने उन्हें हाथ काते सूत की माला पहनायी … एक माला जब मुझे पहनाने को मिली तो वे तनकर खड़े हो गये और बोले कि मैं बहुत बड़ा हूँ, कैसे पहनाओगे … किसी ने पीछे से मुझे उठाया और मैंने मालार्पण किया, उन्होंने मेरा सिर थपथपाया | वे एक बार आये तब यशवंत धर्माधिकारी के महाराष्ट्र हाई स्कूल के बगल वाले बंगले में ठहरे थे , यहाँ बाबा ने मां से सितार सुना था और उन्हें सरस्वती नाम दिया था | सन् 65 में जबलपुर होते हुए वे इलाहाबाद गये थे तब मैहर में उस्ताद अलाउद्दीन ख़ां साहब ने उन्हें सरोद पर राग मल्हार सुनाई थी, विनोबाजी ने फिर अनुरोध करके जैजैवंती भी सुनी| वहां से वे रीवा आये, पिता भी साथ थे | मैं वहां सैनिक स्कूल में था… प्रिंसिपल कर्नल नारंग सभी छात्रों को परेड कराते हुए ठाकुर रणमतसिंह कॉलेज ले गए थे | हमारे हिंदी के अध्यापक इलाहाबाद वाले पांडेजी को पिता के सौजन्य से बाबा के ऑटोग्राफ मिल गयै थे . मुझे भी पिताजी ने बाबा मिलाया… फिर वे छात्रों के साथ बैठे और बोले सरकार भी सेना बनाती है, बाबा भी सेना बनाता है, पर बाबा शांति सेना बनाता है … आप सब लोग शांति के लिये काम करना… सेना अपनी जगह को जैसी साफ़- सुथरी रखती है अपने जीवन को वैसा ही साफ़ – सुंदर रखना | सत्तर के शुरू में ही पिताजी ने सर्वोदय छोड़ने का मन बनाया और इस्तीफा दिया, बाबा ने उन्हें बुलाया और कहा, तुम्हारा इस्तीफ़ा नामंज़ूर…. फिर बोले कि भले अब कोई नया न जुड़े पर में चाहता हूँ पुराना कोई न छूटे | जेपी आंदोलन पर विभाजित सर्व सेवा संघ के लोगों से उन्होंने मतभेद हों पर मनभेद न होने की बात कही थी | हमारे पिताजी जेपी के साथ थे… मध्यप्रदेश संघर्ष समिति के संयोजक बने, आपातकाल में मीसाबंदी हुए और जेल गए… विनोबा पहले ही 24 दिसम्बर 1974 को एक वर्ष का मौन ले चुके थे| कांग्रेसी नेता वसंत साठे उनसे जाकर मिले, विनोबा ने उन्हें महाभारत के अनुशासन पर्व दिखाया…. उन्होंने प्रचारित किया कि आपातकाल को विनोबा अनुशासन पर्व मानते हैं …उन्हें और ज़ोर शोर से सरकारी संत कहा जाने लगा | जबलपुर सेंट्रल जेल में जनसंघियों ने शौचालय जाने के दरवाज़े पर उनकी फ़ोटो ला दी थी और उस पर चप्पल भी मारते थे… 25 दिसम्बर 1975 को विनोबा का मौन खुलना था , उत्सुकता थी कि वे क्या बोलेंगे… मैं व्यौहार राजेंद्र सिंह, ठाकुर रामप्रसाद भाई, मोतीलाल भाई और दीपचंद जैन के साथ पवनार गया… विनोबा ने अपने कथन का अर्थ अपनी शैली में खोला… निराशा ही हुई… घर आकर पिताजी को विनोबा पर ग़ुस्सा निकालती लम्बी चिट्ठी लिखी | पंरपरा बाबा के प्रति उनके आदर में कोई कमी नहीं आई | वैसे अनुशासन पर्व पर जो बाद में मौन तोड़ते समय उन्होंने कहा था वह महाभारत में वर्णित आचार्यों के अनुशासन की बात थी, ‘ जो असली अनुशासन होता है, सरकार का तो सिर्फ़ शासन होता है ‘ | अब विचार करता हूं तो पाता हूँ कि उनके प्रति आकर्षण हमेशा बना रहा | घर में उनके आश्रम की ‘मैत्री’ पत्रिका आती थी, बहुत कम उम्र से उसके सबसे पीछे के पन्नों में प्रकाशित स्तम्भ ‘ विनोबा निवास से ‘ पढ़ता रहा हूँ… लोगों के प्रश्नों पर उनके उत्तर अद्भुत होते थे | किसी ने पूछा निस्वार्थ कैसे बने… जवाब मिला, बहुत आसान है अपना स्वार्थ फैलाते रहिये, उसे व्यापक करिये, अपने से सब तक उसे ले जाइये… किसी ने पूछा आप कौन से ब्राह्मण, देशस्थ कि कोंकणस्थ… बाबा ने कहा, दोनों नहीं, मैं अपनी काया में स्थित हूँ इसलिये कायस्थ… फिर थोड़ा रुककर बोले कि इससे भी आगे मैं अपने स्व में स्थित हूं इसलिये स्वस्थ |
विनोबा लोकनीति की बात करते थे| उनका कहना था व्यापक अर्थ में यह राजनीति ही है… वे मानते थे कि आज अप्रत्यक्ष लोकतंत्र चल रहा है, सर्वोदय लोगों की भागीदारी वाला लोकतंत्र चाहता है… लोकनीति है जनता को जाग्रत करना औ्र राज्य शक्ति को क्षीण करते जाना | गांधीजी के शिक्षणों में वे सत्याग्रह को शिरोमणि मानते थे, पर वे मानते थे कि आज सत्याग्रह का व्यायाम चल रहा है.. सत्य कम हो गया है, आग्रह ज़्यादा है | उनकी वह बात भी ध्यान देने योग्य है जो पहली पंचवर्षीय योजना के प्रारूप देखकर उन्होंने कही थी… उनकी राय जानने यह नेहरू जी ने उनके पास भेजा था, उन्होंने इसे ‘ भीख मांगने की चिरंतन योजना कहा था ‘ | योजना बनाने वालों से उन्होंने कहा कि संविधान ने सभी नागरिकों को रोजी- रोटी देने का वादा किया है… इसे आप लोग भूल चुके हैं… जिनके कंधों पर यह काम पूरा करने की ज़िम्मेदारी है अगर उन्हें यह काम असम्भव लगता है तो फिर उन्हें यह पद छोड़ देना चाहिए |
विनोबा इस तरह के खरे राजनीतिक बयान देते रहे हैं | गांधीजी की हत्या के बाद सेवाग्राम में नेताओं के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उन्होंने ऐसी ही दो टूक बातें की थीं : मैं कुछ कहना चाहता हूँ। मैं उस प्रांत का हूं जिसमें आरएसएस का जन्म हुआ। जाति छोड़कर बैठा हूँ मैं, फिर भी भूल नहीं सकता कि उसकी ही जाति का हूँ मैं, जिसके द्बारा यह घटना हुई। कुमारप्पा जी और कृपलानी जी ने फौजी बंदोबस्त के ख़िलाफ़ परसों सख़्त बातें कहीं। मैं चुप बैठा रहा। वे दुख के साथ बोलते थे; मैं दुख के साथ चुप था। न बोलना वालों का दुख जाहिर नहीं होता। मैं इसलिए नहीं बोला कि मुझे दुख के साथ लज्जा भी थी। यह संगठन इतने बड़े पैमाने पर बड़ी कुशलता के साथ फैलाया गया है। इसके मूल बहुत गहरे पहुंच चुके हैं। यह संगठन ठीक फासिस्ट ढंग का है। उसमें महाराष्ट्र की बुद्धि का प्रधानतया उपयोग हुआ है। चाहे वह पंजाब में काम करता हो या मद्रास में, सब प्रांतों में उसके सालार और मुख्य संचालक अक्सर महाराष्ट्रीय, और अक्सर ब्राह्मण रहे हैं। इस संगठन वाले दूसरों को विश्वास में नहीं लेते। गांधीजी का नियम सत्य का था। मालूम होता है, इनका नियम असत्य का होना चाहिए। यह असत्य उनकी टेक्निक- उनके तंत्र – और उनकी फिलॉसफी का हिस्सा है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की और हमारी कार्यप्रणाली में हमेशा विरोध रहा है। जब हम जेल जाते थे, उस वक्त उनकी नीति फ़ौज और पुलिस में दाख़िल होने की थी। जहां हिंदू-मुसलमानों का झगड़ा खड़ा होने की संभावना होती, वे वहां पहुंच जाते। उस वक्त की सरकार इन सब बातों को अपने फ़ायदे का समझती थी। इसलिए उसने भी उनके उत्तेजन दिया। नतीजा हमको भुगतना पड़ रहा है।
आज की परिस्थिति में मुख्य ज़िम्मेवारी मेरी है। महाराष्ट्र के लोगों की है। यह संगठन महाराष्ट्र में पैदा हुआ है। महाराष्ट्र के लोग ही उसकी जड़ों तक पहुंच सकते हैं। इसलिए आप मुझे सूचना करें, मैं अपना दिमाग़ साफ़ रखूंगा और अपने तरीके से काम करूँगा। मैं किसी कमिटी में कमिट नहीं हूंगा। आरएसएस से भिन्न, गहरे और दृढ़ विचार रखने वाले सभी लोगों की मदद लूंगा। जो इस विचार पर खड़े हों कि हम सिर्फ़ शुद्ध साधनों से काम लेंगे, उन सबकी मदद लूंगा। हमारा साधन-शुद्धि का मोर्चा बने। उसमें सोशलिस्ट भी आ सकते हैं और दूसरे सब भी आ सकते हैं। हमको ऐसे लोगों की ज़रूरत है जो अपने को इंसान समझते हैं। पुलिस-बंदोबस्त के अंदर हमारी यह परिषद हो रही है, यह कितने दुख की बात है। इससे व्याकुल होकर कुमारप्पा तो कुछ देर परिषद में गैरहाजिर रहे। लेकिन उनके साथ सहानुभूति रखते हुए भी मैं मानता हूँ कि इसके सिवा चारा नहीं था। इसका अधिक-से-अधिक दुख पंडित जवाहरलाल जी को हुआ।
सारा दोष आरएसएस वालों पर रखने से हमारा काम नहीं होगा। वे तो हमसे भिन्न विचार रखने वाले हैं ही। दोष तो हमें अपना ही देखना चाहिए। 1942 में हमने क्या किया? उसमें छिपे तरीके काम में लाए, हिंसा भी की, और यह सारा गांधीजी के नाम पर किया। इतना ही नहीं, उसका बचाव भी किया! फिर हमसे भिन्न विचार रखने वाले उसी तरह से छिपे और हिंसात्मक तरीकों से काम करें, तो हम उन्हें क्या कहें? बापू की हत्या की ज़िम्मेवारी हमारे ऊपर है।
विनोबा पर लिखने का मन था … आज हमारा सोच – विचार जो हो, इसकी मुख्यधारा को अनेक निर्मल धाराएं भी मिलकर रचती है…. इस तरह स्मरण कर उन्हें पुनर्नवा करने का भी आनंद है |

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