जौनपुर से शिवसेना का पुराना `लगाव’ : जौनपुर पैटर्न कहे जाने के पीछे उत्तर भारतीय महापौर के लिए चलाया जा रहा अभियान भी,

जौनपुर अष्ट ताराओं की भूमि है, वह आर्यक नाग और राजा ऋतुपर्ण की राजधानी रही है, नाग माता मनसा/ जरत्कारु का जन्म वहीं हुआ, और नाग वंश को बचाने वाले मुनि आस्तिक का जन्म भी यहीं हुआ, हरिश्चन्द्र- तारामती की  रानी तारामती जौनपुर से थीं , इसकी तुलना ईरान के शिक्षा, संस्कृति और बाग़-बगीचे के शहर शिराज से यों ही नहीं की गयी थी या कि फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने इसका नाम मुहम्मद तुग़लक़ के ऋषि च्यवन के नाम पर रखे उपनाम से यों ही नहीं जोड़ दिया था।  पश्चिमी सीमान्त पर बाहर से आये आक्रमणकारियों के खिलाफ लड़ने के लिए कन्नौज और जौनपुर अंतरकोट थे, और युद्ध दर युद्ध यही होता रहा। कन्नौज और जौनपुर दोनों से इत्र की सुगंध फ़ैली, और आज भी फैलती है।   जौनपुर समूचे पूरब का प्रतीक और अयोध्या, काशी,और प्रयाग की परछाईं रहा, इसका जिक्र क्षेत्रीय इतिहास लिखते हुए अलग से करेंगे।  जिसमें जौनपुर के समूचे वैभव की दास्तान होगी। आज अभी, हम अपने को सामना के संपादक संजय राउत के जौनपुर पैटर्न को लेकर लिखे सम्पादकीय तक सीमित रखते हैं।    जब आप किसी को दीर्घकालिक रूप से नापसंद करने लगते हैं, उसके प्रति नफ़रत और द्वेष पाल लेते हैं,.साकीनाका बलात्कार कांड को  किसी तथाकथित जौनपुर पैटर्न से जोड़ देना उस मानसिकता से निकलता है। इसमें किसी प्रकार के सुधार या संशोधन की भी कोई जगह नहीं बचती। क्योंकि आपकी धारणाएं तथ्यों के आधार पर नहीं, मन के किन्हीं अंधेरे कोनों से निकलने लगती हैं।  इन धारणाओं में सुधार की गुंजाईश भी जल्द नहीं बनती, क्योंकि मन के ग्लेशियर बरसों-बरसों में बनते या बिगड़ते हैं। 
शिवसेना का दक्षिण भारतीयों से १९६४ से, और  उत्तर भारतीयों से १९६६ से ऐसा ही रिश्ता चला आ रहा है, जिसमें बीच-बीच में राजनीतिक लोगों की ओर से हिंसा या टकराव की कुछ ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं, जो स्थितियों को सामान्य नहीं होने देतीं। परप्रांतीयों से शिवसेना ने ६० के दशक से ही राजनीतिक दुराव पाल रखा है, हिंसा के लिए परप्रांतियों पर दोषारोपण करना संभवतः उसी मानसिकता से निकलता है; और गंगा और गोदावरी के बरसों पुराने रिश्ते को छिन्न-भिन्न कर देता है। 
लेकिन,  परिवारों से दूर रह कर किये जानेवाले प्रवास और उससे यदि कोई विरूपता पैदा होती है, तो उसे जौनपुर पैटर्न की गन्दगी करार देना संभवतः भाजपा के कुछ उत्तर भारतीय नेताओं के उस अभियान से पैदा हुई राजनीतिक परेशानी की वजह से हुआ है, जिसके तहत स्थानीय निकायों के चुनाव में उत्तर भारतीय मतदाताओं को शिवसेना के खिलाफ गोलबंद करने की कोशिश की जा रही है।  इस अभियान के परदे के पीछे के सूत्रधार पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस हैं। इस अभियान के दोनों मुख्य किरदार पूर्व गृह राज्य मंत्री कृपाशंकर सिंह और पूर्व विधायक और मुंबई महानगरपालिका में नेता प्रतिपक्ष रहे राजहंस सिंह दोनों जौनपुर से हैं, और मुंबई के उत्तर भारतीयों में जौनपुर वालों की बहुलता होने से  उनके पीछे चलने वाले ज्यादातर लोग भी जौनपुर के हैं।  
मुंबई का महापौर होना कोई ऐसी नियामत नहीं था जो उत्तर भारतीयों ने कभी न पाया हो। आर आर सिंह को कांग्रेस ने महापौर बनाया था। राजहंस सिंह नेता प्रतिपक्ष भी रहे थे, और अभी भी भाजपा की ओर से नेता प्रतिपक्ष विनोद मिश्र एक उत्तर भारतीय ही है।  लेकिन,देवेंद्र फडणवीस की राजनीति के कुछ अच्छे पक्ष भी हैं और कुछ बुरे भी। महापौर का मुद्दा संभवतः उन्होंने ही उठवाया है। कृपाशंकर सिंह एक अरसे से कांग्रेस से अलग हुए थे।  श्री सिंह बड़े नेता है, उनकी अखिल भारतीय पहुँच है, इस क्रम में श्री फडणवीस से भी उनकी नज़दीकी रही है। श्री सिंह अब भाजपा में शामिल हुए हैं, ठीक उसी दिन जिस दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ था, जो उनकी ताकत का भी प्रतीक है, और उस रणनीति का भी जो उन्हें हमेशा रोशनी के दायरे में रखती है। वे एक अरसे से भाजपा में शामिल होना चाह रहे थे। इसके लिए शायद पहले वे बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स में एक बड़ी रैली करके अपनी ताकत दिखाना चाहते थे। बाद में उन्होंने इस काम को एक लाख उत्तर भारतीय घरों तक पहुँच कर अपनी बात कहने के अभियान में बदला। अभियान में उनका नारा था कि उत्तर भारतीय केवल किरायेदार नहीं हैं।  वे माकन के हिस्सेदार हैं, इसलिए इस बार मुंबई का महापौर किसी उत्तर भारतीय को बनना चाहिए।  
 २१ फरवरी को परिश्रम संस्था के बैनर तले शुरू हुई उनकी इस संकल्प यात्रा को रमेश दुबे और चंद्रकांत त्रिपाठी जैसे वरिष्ठ नेताओं ने भी समर्थन दिया।  मनसे से भाजपा में आये वकील और राजनेता अखिलेश चौबे श्री सिंह के इस अभियान में उनके साथी बने। यह अभियान कुछ दिनों की धूमधाम के बाद कोरोना के चलते बंद हो गया, लेकिन एक सुरसुरी उसने छोड़ दी।  देखते ही देखते उत्तर भारतीय महापौर हो, इस मांग को भाजपा के कई अन्य नेताओं ने उठा लिए। यह एक किस्म का रिले हुआ। इन नेताओं ने उत्तर भारतीय मेयर की मांग को लेकर जगह-जगह चौपाल लगाना शुरू कर दिया है। इस चौपाल अभियान के प्रमुख नेता राजहंस सिंह हैं।  वे भी जौनपुर से ही हैं। उनकी मुंबई में अच्छी जमीनी पकड़ है, और इन चौपालों ने उनकी राजनीति को नए सिरे से मज़बूत किया है।  उन्होंने एक हजार चौपाल लगाने की घोषणा की है। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रेम शुक्ल , मुंबई भाजपा के उपाध्यक्ष पवन त्रिपाठी, मुंबई भाजपा के प्रवक्ता  उदय प्रताप सिंह और भाजपा उत्तर भारतीय मोर्चा के संयोजक जय प्रकाश सिंह इन चौपाल कार्यक्रमों में सहभागी हैं। प्रेम शुक्ल पहले हिंदी सामना में रह चुके हैं।  इन चौपालों में उनका भाग लेना भी श्री राउत को नहीं सुहाता होगा। प्रेम शुक्ल सुल्तानपुर से हैं, लेकिन जौनपुर की राजनीति में उनकी भी दखल है।  इन चौपालों के केंद्र में भी अमूमन जौनपुर, बनारस या उसके आस-पास के ही लोग बहुतायत से शामिल हैं। यानी फिर जौनपुर।  
 सो, चेतन और अवचेतन दोनों में उत्तर भारत के नाम पर जौनपुर को ही घूमना था। जौनपुर से सामना का पुराना लगाव है। कृपाशंकर सिंह पर हमला करते हुए हिंदी सामना में एक जमाने में कई खबरें छापी गयी थीं। शिवसेना के लिए कृपाशंकर सिंह बरसों से उत्तर भारतीयों के प्रतीक  हैं। सो, इस समझ में, और इस हादसे में जौनपुर पैटर्न शब्द का आविष्कार हुआ।  

लेकिन अब एक चीज जरूर की जानी चाहिए। महाराष्ट्र सरकार को पिछले ८-१० साल के मुंबई और आसपास में हुए अपराधों के आंकड़े निकाल कर उनका विश्लेषण कराना चाहिए। इससे यह भ्रम टूट जाएगा कि अपराधों के लिए परप्रांतीय या किसी तथाकथित जौनपुर पैटर्न की कोई गन्दगी जिम्मेदार है। और तब, सरकार को अपनी कमजोरी और शायद अपनी भूमिका भी समझ आएगी।  २००८ में मनसे ने उत्तर भारतीयों के खिलाफ व्यापक हिंसा की थी। अनेक गरीब लोगों के घर उजाड़ दिए गए थे। कुछ लोगों पर शारीरिक हमले भी हुए थे।  उन प्रकरणों की शुरुआत भी अनायास के टकराव से शुरू हुई थी। जिसमें मनसे के आक्रामक बयान और उसकी हिंसात्मक कार्रवाइयां सामने आईं। पुलिस और सरकार ने इन घटनाओं का सिलसिलेवार विश्लेषण किया होता,.अपराध निरोधक कार्रवाई के तौर पर इन विश्लेषणों को लोगों के सामने रखा होता, तो शायद स्थितियां उतनी कड़वी नहीं बनतीं, जितनी बना दी जाती हैं।  
संजय राउत के पास सरकार भी है, और अखबार भी, उन्हें ऐसे विश्लेषण करा लेने चाहिए। भ्रम टूटेंगे राउत साहब।  जिन्हें जौनपुर पैटर्न कह कर आप सारे समाज को एक लाठी से हाँक रहे हैं, उसके लोग तो डरे-सहमे रहते हैं।  पुलिस स्टेशन में भी उनके साथ किये जानेवाले भेद-भाव के किस्से मुंबई में आम हैं। गाहे -बगाहे पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें  गालियां ही सुनने को मिलती हैं। वे चाहे फटपाथ पर भाजी बेचनेवाले हों या मुंबई के पुलिस कमिश्नर।  सोचिए जनाब,  पैटर्न और भी कई हैं- विकीपीडिया पर  2008 attacks on Uttar Pradeshi and Bihari migrants in Maharashtra खोल कर देख लीजिये।  हिंसा के कारण पुणे से २५००० और नासिक से १५००० से अधिक उत्तर भारतीय कामगार -मज़दूर पलायन को मज़बूर हुए। मुंबई के आसपास से कुल मिला कर यह संख्या लाख से अधिक हुई होगी।  क्यों? किस पैटर्न के तहत? क्या हुआ उन मामलों में जहां अच्छी-खासी हिंसा हुई थी? या इन घटनाओं को छोड़िए , जाने दीजिए कह कर रफा-दफा कर दिया गया? वडाला में २०१९ में विजय सिंह नाम के २७ साल के एक युवा की पुलिस कस्टडी में मौत हुई थी। आपके घर के पास का ही मामला है। क्या हुआ?  विजय सिंह के परिवार को कोई संतोषजनक जवाब आज तक मिल पाया क्या ? या ऐसी घटनाओं का कोई निदान नहीं है? 
और फिर साकीनाका में भटकती लड़की? बीमार और संत्रस्त। सब्जी-भाजी बेचने का एक स्टाल उस परिवार की जीविका का सहारा था। उसे भी उस अवधि में तोड़ दिया गया, जिस अवधि में सरकारों का दायित्व गरीबों की मदद करना और उन्हें जिन्दा बचाना था। साकीनाका जाइए , उस परिवार से मिलिए, पीड़िता की बेटियों, उसकी मां , उसकी बहन, उसके रिश्तेदारों और पड़ोसियों से मिलिए, आपको दुःख का, संत्रास का, परेशानी का, पीड़ा का, गरीबी और बेबसी का, जाति के गर्त में पड़े होने के अभिशाप का भी एक पैटर्न नज़र आएगा।  जो किसी इक्का-दुक्का पीड़ित या पीड़िता के परिवार को कुछ रुपये दे देने से ख़त्म नहीं होगा।  उस पैटर्न को कौन ख़त्म करेगा राउत साहब? उससे कौन मुखातिब होगा?  किसी राजनेता से भले ही हम इन सवालों का जवाब न पायें, लेकिन किसी पत्रकार को तो इन सवालों का जवाब देना ही होगा।  पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र में हुए अपराध के दर्जनों मामले हमने नेट पर खंगाले हैं। आपने सामना के अपने सम्पादकीय में खुद पुणे, अमरावती, नागपुर में हुए प्रकरणों पर दुःख जताया है। इनमें  किसी जौनपुर पैटर्न की गन्दगी तो नहीं दीखती राउत साहब।  दीखती हो तो आपको उसका एक पूरा खाका सबके सामने रखना चाहिए।     .   

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