स्कूल और स्कूल टीचर
समाजशास्त्र का एक छोटा सा नियम है- शुभ रोपो. उसमें फल-फूल लगेंगे ही। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के प्राध्यापक प्रो. आर एन त्रिपाठी ऐसे ही व्यक्तित्वों में हैं जो अच्छाई को रोपते रहते हैं। स्कूल टीचर विभा की इस कथा के जरिये वे सभी अध्यापकों के लिए कर्तव्य की एक लकीर खींच रहे हैं। चित्र: दैनिक जागरण में प्रकाशित एक रिपोर्ट जिसमें बताया गया है कि प्रोफेसर त्रिपाठी ने किस तरह होटल में वेटर का काम करनेवाले रमेश बहादुर थापा को पढाई और उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया। श्री थापा आज सहायक प्रोफेसर के पद पर हैं। और नेपाल के संस्कृति विभाग में भी बड़ा दायित्व संभाल रहे हैं। इस कथा को शिक्षा खंड में डमी के लिए इसलिए चुना गया है कि हाल फिलहाल में ही भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार श्री अरुण दीक्षित की एक रिपोर्ट आयी है– मध्यप्रदेश: दस साल में सरकारी स्कूलों में घट गए 40 लाख बच्चे…कहाँ गए किसी को पता नहीं! पहली कथा-रिपोर्ताज को देखें तो हौसला बढ़ता है, लेकिन दूसरी को देखें तो निराशा हाथ आती है। सरकारी स्कूलों की प्राथमिक शिक्षा किस कदर बदहाल है, मध्यप्रदेश के आकड़े उसकी एक दिलचस्प दास्तान हैं। मध्यप्रदेश जैसे ही हालात तकरीबन हर हिंदी प्रदेश के हैं। ऐसे में, शिक्षा जगत से जुड़े हर व्यक्ति के लिए सोचने और करने की बहुत गुंजाइश है।
प्रो. आर एन त्रिपाठी, प्राध्यापक, समाजशास्त्र विभाग , बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय
एक प्राथमिक स्कूल में विभा नाम की एक शिक्षिका थीं। वह कक्षा पांच की क्लास टीचर थीं। उसकी एक आदत थी कि वह कक्षा में आते ही हमेशा “LOVE YOU ALL” बोला करती थी।.मगर वह जानती थीं कि वह सच नहीं बोल रही । वह कक्षा के सभी बच्चों से एक जैसा प्यार नहीं करती थीं।कक्षा में एक ऐसा बच्चा था जो उनको फटी आंख भी नहीं भाता था। उसका नाम राजू था। राजू मैली कुचैली स्थिति में स्कूल आ जाया करता है। उसके बाल खराब होते, जूतों के बन्ध खुले, शर्ट के कॉलर पर मैल के निशान । पढ़ाई के दौरान भी उसका ध्यान कहीं और होता था।.मैडम के डाँटने पर वह चौंक कर उन्हें देखता, मगर उसकी खाली खाली नज़रों से साफ पता लगता रहता.कि राजू शारीरिक रूप से कक्षा में उपस्थित होने के बावजूद भी मानसिक रूप से गायब हे यानी (प्रजेंट बाडी एब्सेंट माइड) .धीरे-धीरे मैडम को राजू से नफरत सी होने लगी। क्लास में घुसते ही राजू मैडम की आलोचना का निशाना बनने लगता। सब बुराई उदाहरण राजू के नाम पर किये जाते. बच्चे उस पर खिलखिला कर हंसते.और मैडम उसे अपमानित कर के संतोष प्राप्त करतीं। राजू ने हालांकि किसी बात का कभी कोई जवाब नहीं दिया था।.मैडम को वह एक बेजान पत्थर की तरह लगता जिसके अंदर आत्मा नाम की कोई चीज नहीं थी। प्रत्येक डांट, व्यंग्य और सजा के जवाब में वह बस अपनी भावनाओं से खाली नज़रों से उन्हें देखा करता और सिर झुका लेता। मैडम को अब इससे गंभीर नफरत हो चुकी थी।.पहला सेमेस्टर समाप्त हो गया और प्रोग्रेस रिपोर्ट बनाने का चरण आया तो मैडम ने राजू की प्रगति रिपोर्ट में यह सब बुरी बातें लिख मारी । प्रगति रिपोर्ट माता पिता को दिखाने से पहले हेड मास्टर के पास जाया करती थी। उन्होंने जब राजू की प्रोग्रेस रिपोर्ट देखी तो मैडम को बुला लिया- “मैडम, प्रगति रिपोर्ट में कुछ तो राजू की प्रगति भी लिखनी चाहिए। आपने तो जो कुछ लिखा है इससे राजू के पिता इससे बिल्कुल निराश हो जाएंगे।”
मैडम ने कहा “मैं माफी माँगती हूँ, लेकिन राजू एक बिल्कुल ही अशिष्ट और निकम्मा बच्चा है । मुझे नहीं लगता कि मैं उसकी प्रगति के बारे में कुछ लिख सकती हूँ। ” मैडम घृणा भरे लहजे में बोलकर वहां से उठ कर चली गई ।.अगले दिन हेड मास्टर ने एक विचार किया ओर उन्होंने चपरासी के हाथ मैडम की डेस्क पर राजू की पिछले वर्षों की प्रगति रिपोर्ट रखवा दी । अगले दिन मैडम कक्षा में प्रवेश किया तो रिपोर्ट पर नजर पड़ी। पलट कर देखा तो पता लगा कि यह राजू की रिपोर्ट हैं। ” मैडम ने सोचा कि पिछली कक्षाओं में भी राजू ने निश्चय ही यही गुल खिलाए होंगे।” उन्होंने सोचा और कक्षा 3 की रिपोर्ट खोली। रिपोर्ट में टिप्पणी पढ़कर उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही जब उन्होंने देखा कि रिपोर्ट उसकी तारीफों से भरी पड़ी है। “राजू जैसा बुद्धिमान बच्चा मैंने आज तक नहीं देखा।” “बेहद संवेदनशील बच्चा है और अपने मित्रों और शिक्षक से बेहद लगाव रखता है।” यह लिखा था.
मेडम ने अनिश्चित स्थिति में कक्षा 4 की रिपोर्ट खोली- ” राजू ने अपनी मां की बीमारी का बेहद प्रभाव लिया। .उसका ध्यान पढ़ाई से हट रहा है। “राजू की माँ को अंतिम चरण का कैंसर हुआ है। घर पर उसका और कोई ध्यान रखने वाला नहीं है.जिसका गहरा प्रभाव उसकी पढ़ाई पर पड़ा है। ” लिखा था.
नीचे हेड मास्टर ने लिखा कि राजू की माँ मर चुकी है और इसके साथ ही राजू के जीवन की चमक और रौनक भी। । उसे बचाना होगा…इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। ” यह पढ़कर मैडम के दिमाग पर भयानक बोझ हावी हो गया। कांपते हाथों से उन्होंने प्रगति रिपोर्ट बंद की । मैडम की आंखों से आंसू एक के बाद एक गिरने लगे. मैडम ने साड़ी से अपने आंसू पोछे।
अगले दिन जब मैडम कक्षा में दाख़िल हुईं तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार अपना पारंपरिक वाक्यांश “आई लव यू ऑल” दोहराया। .मगर वह जानती थीं कि वह आज भी झूठ बोल रही हैं। क्योंकि इसी क्लास में बैठे एक उलझे बालों वाले बच्चे राजू के लिए जो प्यार वह आज अपने दिल में महसूस कर रही थीं..वह कक्षा में बैठे और किसी भी बच्चे से अधिक था ।
पढ़ाई के दौरान उन्होंने रोजाना दिनचर्या की तरह एक सवाल राजू पर दागा और हमेशा की तरह राजू ने सिर झुका लिया। जब कुछ देर तक मैडम से कोई डांट फटकार और सहपाठी सहयोगियों से हंसी की आवाज उसके कानों में न पड़ी तो उसने अचंभे में सिर उठाकर मैडम की ओर देखा। अप्रत्याशित उनके माथे पर आज बल न थे, वह मुस्कुरा रही थीं। उन्होंने राजू को अपने पास बुलाया और उसे सवाल का जवाब बता कर जबरन दोहराने के लिए कहा। राजू तीन चार बार के आग्रह के बाद अंतत:बोल ही पड़ा। इसके जवाब देते ही मैडम ने न सिर्फ खुद खुश होकर तालियां बजाईं बल्कि सभी बच्चों से भी बजवायी…फिर तो यह दिनचर्या बन गयी। मैडम हर सवाल का जवाब अपने आप बताती और फिर उसकी खूब सराहना तारीफ करतीं। प्रत्येक अच्छा उदाहरण राजू के कारण दिया जाने लगा । धीरे-धीरे पुराना राजू सन्नाटे की कब्र फाड़ कर बाहर आ गया। अब मैडम को सवाल के साथ जवाब बताने की जरूरत नहीं पड़ती। वह रोज बिना त्रुटि उत्तर देकर सभी को प्रभावित करता और नये नए सवाल पूछ कर सबको हैरान भी करता ।.उसके बाल अब कुछ हद तक सुधरे हुए होते, कपड़े भी काफी हद तक साफ होते जिन्हें शायद वह खुद धोने लगा था। देखते ही देखते साल समाप्त हो गया और राजू ने दूसरा स्थान हासिल कर कक्षा 5 वी पास कर लिया यानी अब दूसरी जगह स्कूल मे दाखिले के लिए तैयार था।.कक्षा 5 वी के विदाई समारोह में सभी बच्चे मैडम के लिये सुंदर उपहार लेकर आए और मैडम की टेबल पर ढेर लग गया । इन खूबसूरती से पैक हुए उपहार में एक पुराने अखबार में बदतर सलीके से पैक हुआ एक उपहार भी पड़ा था। बच्चे उसे देखकर हंस रहे थे । किसी को जानने में देर न लगी कि यह उपहार राजू लाया होगा। मैडम ने उपहार के इस छोटे से पहाड़ में से लपक कर राजू वाले उपहार को निकाला। खोलकर देखा तो उसके अंदर एक महिलाओं द्वारा इस्तेमाल करने वाली इत्र की आधी इस्तेमाल की हुई शीशी और एक हाथ में पहनने वाला एक बड़ा सा कड़ा कंगन था जिसके ज्यादातर मोती झड़ चुके थे। मिस ने चुपचाप इस इत्र को खुद पर छिड़का और हाथ में कंगन पहन लिया। बच्चे यह दृश्य देखकर सब हैरान रह गए। खुद राजू भी। आखिर राजू से रहा न गया और मिस के पास आकर खड़ा हो गया। ।.कुछ देर बाद उसने अटक अटक कर मैडम को बोला “आज आप में से मेरी माँ जैसी खुशबू आ रही है।” इतना सुनकर मैडम की आंखों में आंसू आ गये और मैडम ने राजू को अपने गले से लगा लिया।
राजू अब दूसरे स्कूल मे जाने वाला था. राजू ने दूसरी जगह स्कूल मे दाखिला ले लिया था. समय बीतने लगा। दिन सप्ताह, सप्ताह महीने और महीने साल में बदलते भला कहां देर लगती है. मगर हर साल के अंत में मैडम को राजू से एक पत्र नियमित रूप से प्राप्त होता जिसमें लिखा होता कि “इस साल कई नए टीचर्स से मिला।। मगर आप जैसा मैडम कोई नहीं था।”.फिर राजू की पढ़ाई समाप्त हो गयी और पत्रों का सिलसिला भी समाप्त । कई साल आगे गुज़रे और मैडम रिटायर हो गईं।
एक दिन मैडम को अपनी मेल में राजू का पत्र मिला जिसमें लिखा था:”इस महीने के अंत में मेरी शादी है और आपके बिना शादी की बात मैं नहीं सोच सकता। एक और बात; मैं जीवन में बहुत सारे लोगों से मिल चुका हूं।। आप जैसा कोई नहीं है- आपका डॉक्टर राजू.पत्र मे साथ ही विमान से आने जाने का टिकट भी लिफाफे में मौजूद था।मैडम खुद को हरगिज़ न रोक सकी। उन्होंने अपने पति से अनुमति ली और वह राजू के शहर के लिए रवाना हो गईं। शादी के दिन जब वह शादी की जगह पहुंची तो थोड़ी लेट हो चुकी थीं।.उन्हें लगा समारोह समाप्त हो चुका होगा.. मगर यह देखकर उनके आश्चर्य की सीमा न रही कि शहर के बड़े डॉक्टर , बिजनेसमैन और यहां तक कि वहां पर शादी कराने वाले पंडित जी भी थक गये थे. कि आखिर कौन आना बाकी है…मगर राजू समारोह में शादी के मंडप के बजाय गेट की तरफ टकटकी लगाए उनके आने का इंतजार कर रहा था। फिर सबने देखा कि जैसे ही एक वृद्धा ने गेट से प्रवेश किया राजू उनकी ओर लपका और उनका वह हाथ पकड़ा जिसमें उन्होंने अब तक वह कड़ा पहना हुआ था, कंगन पहना हुआ था और उन्हें सीधा मंच पर ले गया।.राजू ने माइक हाथ में पकड़ कर कुछ यूं बोला “दोस्तों आप सभी हमेशा मुझसे मेरी माँ के बारे में पूछा करते थे और मैं आप सबसे वादा किया करता था कि जल्द ही आप सबको उनसे मिलाऊँगा। ध्यान से देखो यह यह मेरी प्यारी-सी मां . दुनिया की सबसे अच्छी है यह मेरी मां. यह मेरी मां हैं . -. प्रिय दोस्तों…. इस सुंदर कहानी को सिर्फ शिक्षक और शिष्य के रिश्ते के कारण ही मत सोचिएगा । अपने आसपास देखें, राजू जैसे कई फूल मुरझा रहे हैं जिन्हें आप का जरा सा ध्यान, प्यार और स्नेह नया जीवन दे सकता है..
मध्यप्रदेश: दस साल में सरकारी स्कूलों में घट गए 40 लाख बच्चे.कहाँ गए किसी को पता नहीं
अरुण दीक्षित, भोपाल मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर खंडपीठ ने दस दिन पहले प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा के गिरते हुए स्तर पर चिंता जताते हुए प्राथमिक शिक्षकों को बेहतर वेतन और सुविधाएं देने की बात कही थी।कोर्ट ने कहा था कि शिक्षा में गुणवत्ता की कमी का सीधा असर बच्चों पर पड़ता है।अपरोक्ष रूप से इसका असर देश पर ही पड़ता है।
कोर्ट की इस गंभीर टिप्पणी के बीच एक ऐसा तथ्य सामने आया है जिसने सरकार पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। यह तथ्य है-पिछले 10 साल में मध्यप्रदेश में 40 लाख से भी ज्यादा बच्चे सरकारी स्कूलों से निकल गए हैं।सरकार को यह नहीं मालूम है कि यह बच्चे अब कहाँ है।वे पढ़ भी रहे हैं या नहीं।
उल्टे सरकार का दावा है कि पिछले दस साल में राज्य में साक्षरता दर 53 से बढ़कर 70 प्रतिशत हो गयी है।इस अवधि में सरकारी स्कूलों पर होने वाला खर्च करीब 1500 करोड़ से बढ़कर 5000 करोड़ पर पहुंच गया है।
सरकारी आंकड़े बता रहे हैं कि सरकार जो कह रही है वास्तव में स्थिति उसके उलट है। सरकार राज्य में साक्षरता की दर पढ़ने का दावा कर रही है पर उसके अपने स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगातार घट रही है। 2010-11 में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में एक करोड़ से ज्यादा बच्चे पढ़ रहे थे। यह संख्या सरकारी आंकड़ों में दर्ज है। लेकिन अब इसी सरकार के आंकड़े बता रहे हैं 2019-20 में प्रदेश के सरकारी स्कूलों में कुल 65 लाख 84 हजार बच्चे ही पढ़ रहे हैं।यह भी सिर्फ आंकड़ा है। वास्तविकता क्या है यह जांच का विषय है।
इस संख्या के हिसाब से देखें तो हर साल लगभग पौने चार लाख बच्चों ने स्कूल जाना बंद किया। लेकिन इस दौरान राज्य में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का बजट 1470 करोड़ से बढ़कर 5000 करोड़ पर पहुंच गया।सरकार यह दावा भी कर रही है कि पिछले दशक में राज्य में साक्षरता दर 53 से बढ़कर 70 प्रतिशत हो गयी है। लेकिन वह यह बताने की स्थिति में नही है कि जब हर साल पौने चार लाख बच्चों ने स्कूल आना बंद कर दिया तो फिर साक्षरता दर बढ़ कैसे गयी।
हमेशा की तरह नौकरशाही कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नही है।लेकिन प्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री इंदर सिंह परमार ने कहा है कि वे इस बात की जांच करवाएंगे कि सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम क्यों हो रही है।मंत्री के मुताबिक जांच के बाद जो जानकारी सामने आएगी उसी के आधार पर आगे की रणनीति बनेगी।
लेकिन माध्यमिक शिक्षा विभाग के अफसर यह नही जानते कि हर साल सरकारी स्कूल छोड़ने वाले बच्चे आखिर हैं तो कहां।वे पढ़ भी रहे हैं कि नहीं।जब उनसे पूछा गया तो उनका उत्तर था- सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे शिक्षा का अधिकार कानून के तहत निजी स्कूलों में पढ़ने चले गए हैं।
लेकिन उनके इस दावे की हकीकत भी कुछ और ही है।सरकारी आंकड़ों के मुताविक निजी स्कूलों में 2010-11 में कुल 47 लाख 27 हजार बच्चे पढ़ रहे थे।2019-20 में यह संख्या 50 लाख 80 हजार के आसपास थी।मतलब साफ है कि दस साल में करीब तीन लाख 53 हजार बच्चे ही सरकारी स्कूल छोड़ निजी स्कूलों में दाखिल हुए।फिर 37 लाख 50 हजार बच्चे कहाँ गए।
इसके बारे में न अफसरों को पता है और न मंत्री को।मंत्री तो आते जाते रहते हैं।उनसे क्या उम्मीद करनी।लेकिन शिक्षा विभाग को चला रहे अफसरों की अनभिज्ञता कई सवाल खड़े करती है।
अब एक और कारनामा देखिए ! विधानसभा की लोक लेखा समिति की बैठक में विभाग के अफसरों ने यह माना था कि सरकारी स्कूलों में बच्चे कम ही आते हैं।जितनों के नाम दर्ज होते हैं उनमें से 20 से 25 प्रतिशत बच्चे ही औसतन स्कूल आते हैं। लेकिन फिर भी उन्होंने अपने रेकॉर्ड में 65 लाख बच्चों को 1100 करोड़ की किताबें,ड्रेस और दोपहर का भोजन बांट दिया।अब उनसे यह कौन पूछे कि जब बच्चे स्कूल आये ही नही तो खाना किसको खिलाया? कपड़े किसे पहनाए और किताबें किसको दे दीं।
अब एक और आंकड़ा देखिये! पिछले दस साल में प्रदेश की आबादी करीब 18 प्रतिशत बढ़ी है।इस हिसाब से करीब 20 लाख बच्चे बढ़ने चाहिए थे। 2010-11 में सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों में एक करोड़ 6 लाख बच्चे पढ़ रहे थे।इस स्थिति में 2019 -20 में यह संख्या एक करोड़ 26 लाख के आसपास रहनी चाहिए थी।लेकिन बढ़ने की बजाय यह संख्या 65 लाख 84 हजार ही रह गयी।
जनसंख्या बढ़ी।स्कूलों का खर्च बढ़ा।लेकिन सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या घट गई।आखिर 40 लाख से भी ज्यादा बच्चे गए तो कहां गए।निजी स्कूलों में पहुंचे नही।सरकारी में हैं नहीं।लेकिन उन पर होने वाला खर्च यथावत रहने की बजाय बढ़ गया। और, कागजों में पढ़े लिखे लोग भी बढ़ गए।