हम नहीं मानते कि तालिबान दहशतगर्द है :अरशद मदनी “आजादी के लिए लड़ना अगर दहशतगर्दी है तो फिर नेहरू- गांधी भी दहशतगर्द थे ‘

— संध्या द्विवेदी

तालिबान और दारुल उलूम दोनों देवबंद विचारधारा को मानते हैं। इसी वजह से अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद दारुल उलूम भी चर्चा में हैं। प्रस्तुत तालिबान और दूसरे कई मुद्दों पर  दारुल उलूम के प्रिंसिपल और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अध्यक्ष अरशद मदनी से एक बात-चीत-।

Q. तालिबान और दारुल-उलूम को जोड़कर चर्चा की जा रही है, क्या आप इस जुड़ाव को मानते हैं?

बिल्कुल यह जहालत की बातें हैं, नादानी की बाते हैं। लोग नहीं जानते हैं। उलेमा ने हिंदुस्तान की आजादी के लिए जो किरदार अदा किया है, उसकी तुलना किसी से नहीं हो सकती। 1915 में तुर्की और जर्मनी की सहायता से मौलाना हजरत शेखुद्दीन ने अफगानिस्तान के अंदर अंग्रेजों की मुखालफत के लिए ‘आजाद हिंद’ नाम की भारत के लिए एक अस्थाई गवर्नमेंट बनाई थी। उस गवर्नमेंट में राजा महेंद्र प्रताप सिंह को सदर, मौलाना बरकतुल्लाह भोपाली को उसका वजीर-ए-आजम और उबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री बनाया गया था।

इन सबने अफगानिस्तान में जाकर काम किया। उस वक्त वहां, बहुत सारे अफगानी उलेमा के पीछे-पीछे चल पड़े। मैंने पहले भी कहा है- जो लोग खुद को देवबंदी समझते हैं, यह वही लोग हैं जो शेखुद्दीन के फॉलोअर्स के वंशज हैं। अफगानिस्तान में देवबंदी मदरसे भी तभी बने। इन लोगों ने कभी दारुल उलूम आकर कोई तालीम हासिल नहीं की। मैं पूछता हूं कि कौन सी गवर्नमेंट हैं जिसने अफगानियों को वीजा देकर हमारे यहां पढ़ने के लिए बुलाया।

Q. तो क्या तालिबानियों की विचारधारा और दारुल उलूम की विचारधारा अलग है?

तालिबान की विचारधारा तो यह है कि वे गुलामी को कबूल नहीं करते। हमारे पूर्वजों की विचारधारा भी यही थी। दारुल उलूम बना ही गुलामी की मुखालफत के लिए है। इसी विचारधारा पर चलते हुए इन्होंने (तालिबान) रूस और अमेरिका की गुलामी की जंजीरों को तोड़ा। बाकी हमारा उनसे कोई ताल्लुक नहीं है। आजकल तो हम खत भी लिखते हैं तो वह सेंसर होता है। फोन पर बात करते हैं, वह भी रिकॉर्ड होती है। कोई यह साबित ही नहीं कर सकता कि दारुल-उलूम का कोई व्यक्ति तालिबानियों से बात करता है।

Q. तालिबानियों ने अफगानिस्तान में शरिया लागू कर दिया। अब वहां औरतों को पर्दे में रहना होगा मर्द और औरत अलग-अलग पढ़ेंगे। उनके शरिया और दारुल उलूम के शरिया में कोई फर्क है?

कौन कहता है कि सिर्फ शरिया ही कहता है कि लड़के और लड़कियां साथ नहीं पढ़ सकते। हिंदुस्तान के अंदर कितनी यूनिवर्सिटी और कॉलेज हैं जो कोएड नहीं हैं। लड़कियों के अलग और लड़कों के लिए अलग कॉलेज हैं। तो क्या इन कॉलेजों की बुनियाद तालिबान ने रखी थी? क्या इन्हें स्थापित करने वाले सब तालिबान के बाप हैं? हिंदुस्तान में तालिबान की गवर्नमेंट है क्या?

यहां 40,000 कॉलेज हैं इसमें तकरीबन 10,000 लड़कियों के हैं। यह कौन सी बात है कि लड़के और लड़कियों को अलग पढ़ाना शरिया की बात है। हिंदुस्तान में क्या तालिबान ने इन यूनिवर्सिटीज का ऐलान किया है। हिंदुस्तान में 100 सालों से यही होता आ रहा है।

Q. क्या औरतें विरोध प्रदर्शन कर सकती हैं?

पर्दे में विरोध कर सकती हैं। पर्दे का मतलब है बुर्का या ढीला-ढाला लिबास। जिसके अंदर औरत का जिस्म और उसका उतार-चढ़ाव दूसरे न देखें। उनका जमाल और हुस्न जाहिर न हो। लिपस्टिक, क्रीम न लगाएं और अपने जिस्म और हरकतों का इजहार न करें तो वह बाहर आकर विरोध कर सकती हैं। कुल मिलाकर पर्दादारी में बाहर आकर विरोध जायज है।

Q. अफगानिस्तान में औरतें जिस तरह से विरोध कर रही हैं, क्या इस्लाम उसकी इजाजत देता है?

मैं नहीं जानता कि औरतें वहां क्या कर रही हैं? वहां क्या हो रहा है। मेरे पास न वॉट्सऐप है और न मैं खबरें पढ़ता हूं। मैं औरतों के मसले में पड़ता ही नहीं।

Q. दारुल उलूम से इस्लाम के खिलाफ किसी भी हरकत पर दुनियाभर के लोगों को फतवे दिए जाते हैं। क्या यहां से तालिबानियों की दहशतगर्दी के खिलाफ कभी फतवा जारी हुआ या होगा?

हम किसी को दहशतगर्द नहीं मानते। तालिबानी भी दहशतगर्द नहीं हैं। अगर तालिबान गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजाद हो रहे हैं और तो इसे दहशतगर्दी नहीं कहेंगे। आजादी सबका हक है। अगर वह गुलामी की जंजीर तोड़ते हैं तो हम ताली बजाते हैं। अगर यह दहशतगर्दी है तो फिर नेहरु और गांधी भी दहशतगर्द थे। शेखुद्दीन भी दहशतगर्द थे।

वे सारे लोग जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ी वे सारे दहशतगर्द हैं। दूसरी बात फतवे को लेकर लोगों की समझ नहीं है। फतवे का मतलब सिर्फ और सिर्फ इतना है कि कोई हमसे जब पूछता है कि इस हरकत या मसले पर इस्लाम का हुक्म क्या है तो हम उसके सवाल का बस जवाब देते हैं। फतवे किसी को पाबंद नहीं बनाते। मानना न मानना आपकी मर्जी।

Q. आज तालिबानी जो कर रहे हैं क्या वह सही है? क्रूरता की खबरें मीडिया में लगातार आ रही हैं।

मैं नहीं जानता कि आज वहां क्या हो रहा है। हम पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग हैं। मैं पहले ही कह चुका हूं कि हम अखबार नहीं पढ़ते, हमारे पास व्हाट्सएप नहीं है। ये तो आप कह रही हैं कि वहां यह सब हो रहा है। वैसे भी हम आज कुछ फैसला नहीं कर सकते। अभी तो ठीक से उनकी वहां हुकूमत भी नहीं आई है। पहले उन्हें आजादी से हुकूमत तो चलाने दें। अगर वे आगे चलकर वहां अमन कायम करते हैं। वहां हर शख्स का मान, उसकी इज्जत और हक महफूज होता है तो फिर हम कहेंगे कि वह बेहतरीन हुकूमत है। अगर इस पर तालिबानी सरकार खरी नहीं उतरती तो हम कहेंगे हमारा उनसे कोई ताल्लुक नहीं। जब तक वे लोग मुकम्मल तौर पर हुकूमत न कर लें, तब तक हम कुछ नहीं कह सकते।

Q. आप कितना वक्त तालिबान सरकार के बारे में राय कायम करने के लिए खुद को देंगे।

हम कौन होते हैं उन्हें वक्त देने वाले! यह तो भविष्य बताएगा। हम सियासी लोग नहीं है।
Q. RSS प्रमुख मोहन भागवत ने कहा- हिंदू और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं, आप उनके बयान से कितना इत्तेफाक रखते हैं?
उन्होंने गलत क्या कहा? हिंदुस्तान में रहने वाले गुर्जर, जाट, राजपूत हिंदू भी हैं और मुसलमान भी हैं। यह तो बहुत अच्छी बात है। मैं तो उनकी इस बात की बहुत तारीफ करता हूं। मैं तो समझता हूं कि RSS का जो पुराना रवैया था, वह बदल रहा है और वे सही रास्ते पर हैं।

Q. भागवत का कहना है कि हमें भारतीयता की सोच के साथ चलना होगा न कि मुस्लिम वर्ग की सोच के साथ?

मुसलमान को अपने मुल्क से प्रेम है। ये जो केस पकड़े जाते हैं दहशतगर्दी के, वे ज्यादातर झूठे होते हैं। क्योंकि अगर यह सब सच्चे हैं तो फिर निचली अदालत से सजा मिलने के बाद हाईकोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट से लोग कैसे बरी हो जाते हैं? मेरे सामने कई ऐसे केस आए हैं, जहां लोअर कोर्ट और हाईकोर्ट ने फांसी की सजा दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस शख्स को बाइज्जत बरी कर दिया।

Q. दारुल उलूम में किन्हें और कैसी तालीम दी जाती है?
मुल्क में एक लाख से ज्यादा मस्जिदें हैं, जहां 5 वक्त की अजान दी जाती है और 5 वक्त की नमाज भी पढ़ी जाती है। हमें हर मस्जिद के लिए इमाम चाहिए। इन मस्जिदों में जो बच्चे आते हैं, उनको तालीम देने के लिए मौलवी चाहिए। नहीं तो हमारी मस्जिदें वीरान हो जाएंगी। यह हमारा निसाब-ए-तालीम है जो खालिस मजहबी है। हम स्टूडेंट्स को प्रोफेसर, एडवोकेट और डॉक्टर नहीं बनाते। हम उनको खालिस मजहबी इंसान बनाते हैं, जो नमाज पढ़ाए, मजहबी तालीम दे।

इसके अलावा इस्लाम का तसव्वुर कि दुनिया के अंदर मजहब से ऊपर रहकर प्यार मोहब्बत से रहना, वह सिखाते हैं। हम उन्हें यह बताते हैं कि अपने धर्म की खिदमत करनी चाहिए, लेकिन किसी को पाबंद नहीं बनाते। स्टूडेंट किसी और यूनिवर्सिटी में जाकर तालीम हासिल करना चाहता है तो हमें कोई दिक्कत नहीं।

Q. यहां तालीम को कितने हिस्सों में बांटा जाता है?
1 से 5 क्लास तक हम सिर्फ कुरान पढ़ाते हैं। इसके बाद 5 साल का कोर्स है। इसके अंदर हिंदी, भूगोल, हिसाब और कुछ फारसी जुबान पढ़ाते हैं। इसके बाद अरबी का कोर्स आता है। यह 8 साल का है। इसमें अरबी की ग्रामर पढ़ाकर बच्चों को कुरान और हदीस की व्याख्या पढ़ाने के लिए तैयार करते हैं। आखिर में हम उन्हें हदीस और कुरान का पढ़ा हुआ बना देते हैं।

अगर बच्चा बहुत तेज है तो फिर आगे और दर्जात हैं। अगर वह फतवों का एक्सपर्ट बनना चाहता है, तो फिर उसे फतवे का कोर्स कराते हैं। अगर वह अरबी अदब का कोर्स करना चाहता है तो फिर उसमें लगा देते हैं। सबसे टॉपर बच्चे ‘हदीस’ की एक्सपर्टीज हासिल करते हैं। कुछ बच्चे मसले बताने की एक्सपर्टीज हासिल करते हैं, जैसे क्या चीज इस्लाम में जायज है और क्या नाजायज।

Q. अब तक मजहबी तालीम का औरतों के लिए भी कोई सेंटर क्यों नहीं बना?
हमने कभी नहीं सोचा, क्योंकि दारुल उलूम का मकसद मुजाहिद (योद्धा) बनाना है। दरअसल आजादी की लड़ाई लड़ते-लड़ते 1857 में दिल्ली के अंदर 33 हजार उलेमाओं को अंग्रेजों ने लाल किले से लेकर जामा मस्जिद तक के दरख्तों में फांसी दे दी थी। उनके बच्चे यतीम हो गए थे। खाने को कुछ नहीं था, बेचारे भीख मांगने लगे। इन बच्चों को यतीम बनाने वाले अंग्रेजों ने ही बच्चों की मांओं से कहा, तुम इन बच्चों को हमें दे दो। हम इन्हें खाना देंगे, कपड़ा देंगे, पनाह और तालीम देंगे। पढ़ने के बाद नौकरी भी देंगे।

मुहम्मद कासिम नानोतवी, फजरुल रहमान उस्मानी सैय्यद मो.आबिद के लिए यह बात नाकाबिल-ए बर्दाश्त थी कि जिन्होंने अंग्रेजों से मुजाहिदों की तरह आजादी के लिए लड़ाई की, उनकी ही औलाद फिर अंग्रेजों की मुलाजिम बने। लिहाजा इन्होंने दारुल उलूम की नींव रखी। यहां अंग्रेजों की तरह ही बच्चों को सब कुछ देने के वादे के साथ मुफ्त तालीम की भी व्यवस्था की गई। उनका मकसद मुजाहिदों के बच्चों को मुजाहिद (योद्धा) बनाना था। औरतों को मुजाहिद बनाने का मकसद तो न पहले कभी हमारा था और न आज है।

हमने लोगों से कहा, औरतों के लिए भी मजहबी स्कूल-कॉलेज खोले जाएं। कई स्कूल-कॉलेज खुले भी, आज लड़कियां खूब मजहबी शिक्षा ले रही हैं, लेकिन दारुल उलूम के भीतर लड़कियों को पढ़ाने का हमने कभी मन नहीं बनाया। यह खालिस मर्दों को मजहबी शिक्षा देने का केंद्र है।

Q. इस्लामिक कानून शरिया औरतों की पढ़ाई के लिए क्या कहता है?
हदीस के अंदर लिखा है, औरतें तालीम हासिल कर सकती हैं, लेकिन मर्दों से अलग रहकर। देखिए जहां भी खतरा होगा राह रवी (भटकने) का खतरा होगा। वहां औरतें नहीं जा सकतीं। मर्दों के साथ पढ़ने में औरतों के भटकने का खतरा है।

Q. औरतें कौन-कौन सा पेशा नहीं चुन सकतीं?
सबकुछ चुन सकती हैं, लेकिन पर्दे के साथ। औरत का लिबास ऐसा हो कि अल्लाह ने औरतों का जिस्म जैसे ढाला है वह कपड़ों के साथ जाहिर न हो। कपड़े बिल्कुल ढीले-ढाले हों। ऐसे कपड़ों के साथ हिजाब लगाकर वह जो पेशा अख्तियार करना चाहें करें, लेकिन ध्यान रहे कि सिर्फ आंख और चेहरे को दिखाने की ही इजाजत शरिया देता है।

Q. मुस्लिम औरतें अगर खिलाड़ी बनना चाहें, तो क्या बन सकती हैं?
नहीं, बिल्कुल नहीं। ऐसा कोई काम नहीं कर सकतीं, जिसमें औरतों का भागना-दौड़ना मर्द देखें।

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