पूर्वांचल प्रथम यानी गांधी के आईन में ईमान का वादा समृद्ध पूर्वांचल, समुन्नत पूर्वांचल की तजवीज़

६ फरवरी २०२१ को सरहदी गांधी फाउंडेशन के साथ मिल कर पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान ने दक्षिण मुंबई के यशवंत राव चव्हाण प्रतिष्ठान, सभागार में सरहदी गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान की जयंती पर एक स्मृति सभा का आयोजन किया।  जिसे गांधी जी के पौत्र श्री राजमोहन गांधी ने मुख्य वक्ता के रूप में संबोधित किया। वे अमेरिका से बोल रहे थे, सम्बोधन वर्चुअल था, लेकिन एक-एक शब्द सीधे श्रोताओं के मन में उतर रहे थे। उन्होंने गांधी जी और खान साहब के बीच के आत्मीय रिश्तों को लेकर बातचीत की,और  सभागार में बैठे लोगों को याद दिलाया कि जिन चारदीवारियों को हम लोगों ने अपने गिर्द घेर लिया है, और घेरते जा रहे हैं और जिन्हें हम अपना सुरक्षा कवच मान लेते हैं, वे चारदीवारियां हम सभी की स्वतंत्रता में, बाधक हैं। वे हमारे रहन-सहन, सोच-विचार, विकास,और बढ़ाव आदि सभी को प्रभावित कर रही हैं।  उन्हें जितनी जल्दी दूर किया जाए उतना अच्छा। 


सभा में बैठे लोगों को उनकी बातें इसलिए भी महत्वपूर्ण लग रही थीं, क्योंकि सभा के आयोजन के कुछ दिनों पहले ही हरियाणा के मुख्यमंत्री ने फैसला किया था कि फरीदाबाद के सरहदी गांधी के नाम पर बने अस्पताल का नाम बदल कर पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर कर दिया जाए; और यह बात किसी के भी गले नहीं उतर रही थी।  ज्यादातर लोगों का मानना था कि इस फैसले के पीछे जानकारी का अभाव और संवाद की कमी है। सरहदी गांधी को भारत सरकार ने भारत रत्न दिया है। वे उन लोगों में से थे जिन्होंने भारत के विभाजन के खिलाफ प्राण-पण से संघर्ष किया था। वे सीमा प्रान्त को भारत का हिस्सा बनाना चाहते थे। आज़ादी के बाद भी उनके कई साल पाकिस्तान की जेलों में ही बीते। लोगों को अस्पताल का नाम बदलना इसलिए भी बुरा लग रहा था, क्योंकि अटल जी को जानने वाले जानते हैं कि अटल जी होते तो इस बात को कभी भी पसंद नहीं करते। बल्कि वे खुद हरियाणा सरकार के इस फैसले के खिलाफ खड़े होते।  


राजमोहन जी की बात के महत्वपूर्ण लगने की एक और भी वजह थी। पिछले कुछ सालों में जिस तरह खान मार्केट शब्द का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ है, वह किसी को भी हतप्रभ कर देने वाला है। खान मार्केट नाम गफ्फार खान साहब के बड़े भाई के नाम पर रखा गया है।  सीमा प्रान्त के लोग बंटवारे के बाद दिल्ली आकर जिन इलाकों में बसे, उनमें से कई को उन्होंने अपने प्रिय नेताओं के नाम पर पहचान दी थी। खान मार्केट भी उन्हीं जगहों में से एक है।  और ये सभी जगहें, भारत की अखंडता की प्रबल इच्छा की याद दिलाती हैं।  ये जगहें, प्रतीक या निशानियां राजनीतिक विवाद के दायरे में आएं तो उससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ और नहीं हो सकता।  


ऊपर का उदाहरण हमने इसलिए नहीं दिया कि खान भाई मुसलमान थे, और उनके हवाले से हम अपने लिए किसी कल्पित सेकुलरिज्म का कोई तमगा ढूंढ रहे हैं।  इसके कुछ समय पहले मुंबई के चेम्बूर के के स्टार माल में भी हम लोगों ने एक हिन्दू-मुस्लिम संवाद कार्यक्रम आयोजित किया था।  उसमें संघ और भाजपा की विचारधारा और उनके कामों को लेकर मुस्लिम समाज की ओर से जो सवाल उठते हैं, वे उठे, लेकिन ये सवाल भी प्रमुखता से उठे कि औचित्य की अवहेलना क्यों की जाती है? जो उचित है,उसे जांच करके मान क्यों न लिया जाए? यह अयोध्या, मथुरा, काशी के मामले में भी है, और कई उलझाव भरे दूसरे सवालों के बारे में भी है।  सभी के लिए एक व्यक्तिगत कानून क्यों न बने? आबादी पर सभी के लिए एक जैसा नियंत्रण क्यों न हो?  और मानवाधिकार आदि के सवालों पर एक जैसी प्रतिक्रिया क्यों न हों? हिन्दू हों या मुस्लिम, दोनों ही समाजों को निष्पक्ष और वस्तुपरक होकर सोचना होगा। आज़ादी के बाद राज कौन करेगा, उसकी कोई रस्साकशी थी तो, उसका फैसला तो भारत विभाजन के साथ हो चुका, अब किसी मिली-जुली, साझा संस्कृति के बदले अलग आईडेंटिटी को खूंटा गाड़ कर खड़ा करने की बात क्यों हो?   


इन विषयों पर खुले मन से बातचीत हो, तो नतीजे शायद अच्छे निकलेंगे। लेकिन संवाद ही बंद हैं।  समाज के विभिन्न वर्गों के बीच भी झगड़े तो हो रहे हैं लेकिन कोई बातचीत नहीं हो रही।   
दुराव बढे हैं। आँखों में चोरी समायी है। छीना-झपटी बढ़ी है, और आपसी भरोसे व ईमान  में कमी आयी है।  एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदारी और सामाजिक समझदारी भी घटी है। जीवन की गुणवत्ता में भी कमी आयी है, और मूल्य बोध भी कमतर हुए हैं।  भ्रष्टाचार, अपराध ,  हिंसा, आतंक, असहिष्णुता आदि की घटनाएं अनियोजित रूप से भी बढ़ी हैं, और नियोजित रूप से भी बढ़ायी गयी हैं। कई-कई बार लगता है कि हम लोग सामूहिक रूप से किसी गर्त में जा रहे हैं।  

राजनीति और समाज नीति, जिन्हें मुखर होकर इन दूरियों को मिटाना था, वे खुद सेक्टेरियन हो गयी हैं। साहित्य और संस्कृति तक में अलगाव और अबोलापन छाया है। जिम्मेदार और समझदार लोगों की बातें भी निहित स्वार्थों और उलझनों में फंस कर रह गयी हैं।  तकरीबन इन्हीं सब समस्याओं में हमारा मीडिया भी घिर कर रह गया है।  फिर ईमानदार संवाद और ईमानदार सूचना का प्रवाह कैसे हो? ईमानदार विचार कैसे बनें,और बहें?  गंभीर, स्थिरमति चिंतन कैसे हो? और उसके आधार पर विचारशील नतीजे और निष्कर्ष कैसे निकलें? और किन्हीं बड़े बदलावों की वकालत करनी हो, वैचारिक अग्रदूत या उत्प्रेरक बनना हो, आदर्श और मानक खड़े करने हों, तो किस आधार पर किये जाएँ? ख़ास कर तब, जब आजमाए हुए मानक खुद को विरूपताओं में फंसा पाएं, और राजनीतिक द्वंद्व, चालाकियां और कारगुजारियां उन पर हाबी हो चुके हों, तब? 


हमारा समाज अनेक परतों से बना है।  दुर्भाग्य से कई-कई सवालों पर हर परत के अपने अलग दृष्टिकोण हैं।  कई बार सत्य और असत्य, उचित और अनुचित सब उस दायरे से तय होते हैं। कई बार एक का सच दूसरे के लिए झूठ हो जाता है।  एक का ईमान दूसरे के लिए बेईमानी बन जाता है। जीवन मूल्यों को भी किसी बेहद परतदार समाज में हम व्यक्तिनिष्ठ या वर्ग निष्ठ होने से नहीं रोक सकते।  अनुभवों का अलग होना और समस्याओं से निजात पाने के तरीकों और वरीयताओं का अलग हो जाना भी सच, ईमान और अच्छी-बुराई के निर्धारण में एक बड़ी समस्या पैदा करता है।  तो फिर? जो वस्तुपरक है, आधुनिक विचारधाराओं को स्वीकारता है, किन्हीं रूढ़ियों में नहीं उलझता; जो समाज के एक बड़े हिस्से के सच और अनुभवों को स्वीकारता है, सबको साथ लेकर चलना चाहता है, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के पैमाने को मानता है, उससे भी आगे सर्व जन हिताय सर्वजन सुखाय को, और अपने देश, समाज, अपनी संस्कृति व अपनी गरिमा और अपने स्वाभिमान को पूजता है, सभी के लिए वांछित वही हो सकता है।  सच और झूठ , वांछित और अवांछित के पैमाने वहीं से निकलेंगे।  इस रूप में हम गांधीवादी दर्शन को कारगर और अनुकरणीय मानते हैं। उसकी आज भी उतनी ही प्रासंगिकता है, जितनी कल थी।   गांधी समाज की अधिकांश परतों को बिना किसी भेदभाव के एक साथ सम्बोधित करते हैं। उनकी सोच भारत की संस्कृति में रची-बसी है। समन्वय के सूत्र भी बनाती है, और बदलाव के  सरंजाम भी खड़े करती है। वह श्रम और स्वाभिमान, स्वराज और आत्मनिर्भरता के साथ-साथ  , जीवनेतर मूल्यों का भी पोषण करती है। आचार्यों की जो वैश्विक मनीषा रही है. महापुरुषों के जो जीवन सूत्र रहे हैं, और सामान्य से सामान्य व्यक्ति के भी जो अनुभव रहे हैं, गाँधी दर्शन में वे निहित हैं, और इन निहितार्थों को रिफरेन्स बना लिया जाए तो ऊपर जिन स्रोतों की हमने बात की, पलट कर उन तक पहुँचना भी आसान हो जाता है।  गांधीवाद के भीतर यह भी निहित है कि किन्हीं भी विचारों में परिस्थितियों के हिसाब से यदि किसी समंजन, परिष्कार या परिवर्तन-परिवर्धन की जरूरत है, तो उसे भी स्वीकार किया जाए।  हम इस समझ और सोच को भी स्वीकार करते हैं।  

पूर्वांचल के लिए तो गांधी दर्शन अब और भी बड़े अनुकरणीय आदर्श के रूप में उपस्थित हुआ है।  रामराज्य की कल्पना गांधी दर्शन का मूल प्राण है। और वह कल्पना अपने प्रतीक रूप में आकार ले रही है।  विश्वास और आत्मविश्वास की एक अद्भुत थाती समायी हुई है उसमें।  
पूर्वांचल की परिस्थितियां देश के दूसरे हिस्सों से थोड़ा भिन्न हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ को समेटता, ओड़िसा और पश्चिम बंगाल तक पहुंचता यह इलाका आर्थिक-औद्योगिक विकास की दृष्टि से पिछड़ा है। रोजी और रोटी के अवसर कम हैं। आबादी का घनत्व ज्यादा है।  सारा इलाका एक लम्बे समय से प्रवास और प्रव्रजन की पीड़ा झेल रहा है।  स्वदेशी प्रणाली और परंपरागत उद्योग-धंधे पीछे छूट गए हैं।  खेती सीमान्त हो गयी है।  ऐसे में आबादी का एक बड़ा हिस्सा विस्थापित-सा होकर रोजी-रोटी और रोजगार की तलाश में दिहाड़ी मज़दूरों की तरह चौराहे-चौराहे आ खड़ा हुआ है। सामंती मूल्य वास्तविक स्थितियों से उसे अभी  भी दो-चार नहीं होने दे रहे। आर्थिक-औद्योगिक विकास को लेकर सरकारें सक्रिय हुई हैं, लेकिन तंत्र को तो बरसों-बरसों से लकवा मारे हुए है। पढ़ाई-लिखाई में मैकाले के भूत घूम रहे हैं। इस इलाके को एक बड़ा सांस्कृतिक बदलाव चाहिए। समाज और सरकार के बीच विभिन्न स्तरों पर सेतु बनाने की भी जरूरत है। राजनीतिक तौर-तरीकों में भी बड़े बदलाव किये जाने चाहिए।  समाज में संवाद और मेल-मिलाप बनाने की भी जरूरत है। 
ऐसे में कुछ फोरम ऐसे होने चाहिए जो निष्पक्ष और तटस्थ होकर काम करें। पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान की कल्पना और संरचना दोनों इसी रूप में की गयी है। उसके पूर्वांचल प्रथम नाम के इस मीडिया प्लेटफार्म की कल्पना भी बिलकुल स्वतंत्र और किन्हीं भी दलगत आग्रहों से हट कर की गयी है। हम नौकरी के बदले उद्योग-उद्यम, व्यापार-व्यवसाय, कारोबार-रोजगार की संस्कृति फैलाना चाहते हैं; पूर्वांचल को समृद्ध और समुन्नत बनाना चाहते हैं, उसे देश-दुनिया में अव्वल बनाना  चाहते हैं।  ऐसे पूर्वांचल को छल-कपट से दूर आपसी विश्वास और भरोसे का एक स्वाभाविक संसार चाहिए। समाज को आगे बढ़ाने के लिए डायलेक्टिक्स में हमें उतना यकीन नहीं जितना सौमनस्य, सद्भाव और समझ में है।  पूर्वांचल प्रथम के रूप में समझिए कि हम एक ऐसी खराद भी बना रहे हैं, जिसमें पूर्वांचल की रीति-नीति ,सोच-विचार और काम-काज को हम निरंतर खरादते रहेंगे।  
पूर्वांचल बदल रहा है। इस बदलाव में एक विश्वस्त की भूमिका निभाने की मंशा है हमारी।    देश का दिल है पूर्वांचल।  पूर्वांचल बदलता है तो देश बदलता है।  दुनिया बदलती है।  भारत जब विश्वगुरु और सोने की चिड़िया बना था तो उसमें पूर्वांचल की बड़ी भूमिका थी।  पूर्वांचल को हम फिर उसी रूप में देखना चाहते हैं। पूर्वांचल में भगवान पैदा होते हैं, पूर्वांचल की ख्याति दुनिया में इस रूप में भी तो है।    


२ अक्टूबर को हम यह डमी औपचारिक रूप से लोकार्पित कर रहे हैं। महालय चल रहा है।  ये  पितरों के प्रति श्रद्धा और आभार जताने के दिन हैं।  इस डमी को इस रूप में भी स्वीकार कीजिये। हमारा प्रयत्न है कि २५ दिसंबर को इसका प्रथम अंक आ जाए।  २५ दिसंबर सुप्रसिद्ध साहित्यकार-पत्रकार डॉ. धर्मवीर भारती का जन्मदिन है। जिसे पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान भारतीय भाषा स्वाभिमान दिवस और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के संकल्प दिवस के रूप में मनाता है। हम कोशिश करेंगे कि उस तारीख तक हम अपने इंतज़ामात पूरे कर लें। न्यूज़ अपडेट हम आज से ही शुरू कर रहे हैं। ब्रेकिंग न्यूज़ और ताज़ा खबरों का सिलसिला भी जल्द ही शुरू हो जाएगा।  २५ दिसंबर तक डिजिटल और प्रिंट मैगज़ीन का भी आकार-प्रकार उभर आएगा।   तैयारी को सार्वजनिक करने का सिलसिला इसलिए बनाया गया है ताकि सम्पादकीय सामग्री जुटाने की एक श्रृंखला बन जाए, जिससे पाठकों के लिए शुरू से ही गंभीर और प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध हो सके।  पूर्वांचल प्रथम का संयोजन, सोच-विचार, अध्ययन-मनन, शोध और सर्वेक्षण की पत्रिका के रूप में किया गया है इसलिए सामग्री जुटाने में थोड़ी अतिरिक्त मेहनत अपेक्षित ही है। इस बीच पूर्वांचल प्रथम यूट्यूब चैनल को भी शुरू कर दिया जाएगा।  


पूर्वांचल प्रथम बुनियादी तौर पर एक न्योता है, एक ऐसे मीडिया मंच में सम्मिलित होने का, जो किसी भी किस्म की दलगत राजनीति से परे हो,जो तथ्यों और परिस्थितियों का तटस्थता से मूल्यांकन करे, पूर्वांचल के आर्थिक-औद्योगिक विकास के लिए उत्प्रेरक का काम करे, विकास व बढ़ाव के लिए जरूरी सांस्कृतिक बदलावों के लिए माहौल बनाये और समाज में फ़ैली संवादहीनता को हटाकर सार्थक संवाद की स्थितियां बनाये। हमें आपका साथ और सहयोग चाहिए। 

सम्पादकीय लिख रहे रहे, उसी समय पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान के एक साथी सदस्य प्रवीण सिंह ने एक छोटी सी पोस्ट और इंडोनेशिया से एक वनमानुष का चित्र भेजा।  जो वनमानुष ख़त्म होने की कगार पर खड़े हैं, उनमें से एक कीचड में फंसे एक भूवैज्ञानिक की मदद के लिए अपना हाथ बढ़ा रहा है।  यह चित्र बहुत कुछ करने की प्रेरणा देता है। किये हुए के प्रति आशा और विश्वास भी जगाता है। बहुत कुछ अच्छा जो हमने खोया है, वह अभी भी हमारी ओर सहायता के हाथ बढ़ा रहा है।  और बहुत कुछ जो हम बना नहीं पा रहे, वह भी हमारी मदद के लिए हाथ बढ़ाना चाहता है।  बस एक बार केवल पूर्वांचल अपने हाथ से हाथ मिलाना सीख ले।  दूसरों की मदद के लिए तो पूर्वांचल के लोगों के हाथ हमेशा ही आगे बढे रहे हैं।  
प्रवीण जी की पोस्ट और आरंगुटान का यह चित्र–  
CNN posted a photo and showed it to the whole world, an image that will go down in history. Taken from the lens of #photographer Anil Prabhakar in a forest in Indonesia. The picture shows an #orangutan in acute danger of extinction as he reaches out his hand to help a geologist who is stuck in the mud. 
A great lesson for people who threaten their habitat .When the photographer uploaded the photo he wrote about it … at a time when the concept of humanity is dying, animals lead us back to the principles of humanity. Just think about it. 

orangutan.jpg

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