जिनके पद चिह्न चलें रघुराई
श्री अभय छजलानी
ओम प्रकाश
७ अप्रैल , २०१९ को पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान ने मुंबई, कांदिवली के सावित्री देवी हरिराम अग्रवाल इंटरनेशनल स्कूल में धर्मयुग की याद कार्यक्रम में श्री सुदीप का अमृत महोत्सव मनाया। इस कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए इंदौर से नई दुनिया के मालिक-संपादक श्री अभय छजलानी जी पधार रहे थे। उनके स्वागत में लिखा गया यह आलेख–अवध से हूँ, इसलिए जब किसी श्रेष्ठ महापुरुष की याद करनी हो तो हमारे सामने एक ही प्रतिमा होती है और एक ही प्रतिमान होता है, भगवान श्री राम का। और जब लिखने-पढ़ने की बात हो तो भी देखने के लिए केवल एक ही नाम होता है, गोस्वामी जी का, गोस्वामी तुलसीदास का। और घुट्टी में जो एक सवाल लेकर हम पैदा होते हैं, वह केवल एक और एक ही होता है , श्रीराम किनके पद चिन्हों पर चले होंगे या आज भी चलते होंगे? किनके पाँव उनके अपने पाँव बनते होंगे?
नरसों मलाड से होकर आ रहा था। अखिल भारतीय भूमिहार समाज की बैठक चल रही थी। मैं उधर से गुजरा तो हठात रुक गया। एक बड़ी तेजस्वी महिला बोल रही रही थीं, भगवान श्री राम का जीवन तो डिजास्टर था। देश निकाला मिला। जॅंगल गए तो पत्नी को राक्षस हर ले गया। पत्नी पाए भी, तो पत्नी पर लांछन लगा , उन्हें जंगल भेजना पड़ा। कल्पना कीजिये उनके संत्रास की कि पत्नी जंगल में भटक रही हैं और श्री राम को यज्ञ में सोने की मूरत स्थापित करना पड़ रहा है। बच्चे जंगल में बड़े हुए , और उनसे भी युद्ध करना पड़ रहा है। संकोच इतना बढ़ा कि सीता धरित्री में आत्मसात हो जाती हैं। और श्रीराम, भगवान भी माता सरयू में महा जलावतरण करते हैं !
पूछा तो पता चला वे सुश्री वीणा शाही हैं.। बिहार में मंत्री रही हैं। सीतामढ़ी की हैं। यह कथा सुनाकर वे लोगों से पूछती हैं, तो फिर भी, लोग क्यों पूजते हैं श्रीराम को ?
पिछले साल हरिद्वार गया था। स्वामी चिन्मयानन्द के आश्रम के सामने जो घाट बना है, विशाल पाट के बीच बारिश के बाद माता की केवल एक झिरी भर बहती है। नहाया, और वहीं घाट पर लेट गया। शाम उतर रही थी। जल कुंड में लोग नहा रहे थे, किलोल कर रहे थे। तभी घाट पर कुछ महिला-पुरुष आकर बैठ गए। उन्होंने ढोलक वगैरह ले रखी थी। वे श्रीराम को स्मरण करते गीत गाने लगे। खूब भाव विभोर। ध्यान से सुना तो वे छत्तीसगढ़ी में गए रहे थे। छत्तीसगढ़ यानी छोटा कौशल। अपने को श्रीराम से जोड़ूँ तो हमारी ननिहाल। खिंचा उनके पास चला आया। पूछा, क्यों प्रिय हैं इतने राम? तो जो समझ में आया, उसने उस रात नींद उचाट दी। श्री राम का राज छीन लिया गया था । गरीबों के भी घर, जमीन, जायदाद छीन लिए जाते हैं। उन्हें देश निकाला दे दिया गए था.। आजीविका के लिए गरीबों को भी घर से निकाला मिल जाता है। श्रीराम की पत्नी छीन ली गयी थी। कोई राक्षस गरीबों की भी पत्नी छीन लेता है। माता सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा था। गरीबों की पत्निया भी तमाम लांछनों से गुजरती हैं, रोज अग्निपरीक्षा देती हैं। उनमें से जाने कितनों को प्राणों की आहुति भी देनी पड़ती है, उन्हें धरित्री में धंस जाना पड़ता है। ये शोषित, वंचित,, पीड़ित जन अपने आपको श्री राम से सिम्बलाइज करते हैं। श्रीराम उनके देवता ही नहीं हैं, उनके प्रतीक भी हैं।
लेकिन वीणा शाही क्या पूछ रही थी, और उसके पहले मैं क्या पूछ रहा था, कि श्रीराम किसके पद चिन्हों पर चले या चलते होंगे? या कि उन्हें क्यों पूजते हैं हम , वे लोग भी जो श्रीराम से उस तरह सिम्बलाइज़ नहीं करते जिस तरह से शोषित, वंचित, गरीब लोग करते हैं, तो भी ? सवाल पूछने के बाद वीणा शाही ने कहा- “ इसलिए पूजते हैं लोग कि उन्होंने विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी मूल्यों और मानकों की रक्षा की। उन्होंने मर्यादाएं रखीं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। ” वही जवाब मेरे भी सवाल का है- श्रीराम उनके पद चिन्हों पर चले होंगे, और आज भी चलते होंगे जो कर्तव्यों का, मूल्यों का, मानकों का समुचित निर्वाह करते होंगे। जिन्होंने आकाश से भी ऊंचा माथा किया होगा। और जिन्होंने धरती से भी नीचे अपनी जड़ें फैलाई होंगी। और जिन्होंने , उन लोगों की भी पीड़ा को आत्मसात किया होगा, जो श्रीराम से अपने को सिम्बलाइज़ करते हैं। कहते गर्व है मुझे, श्रीराम पद्मश्री श्री अभय छजलानी जैसों के पद चिन्हों पर चले और चलते हैं. । अभय जी कर्तव्य निष्ठां, सदाशयता और गरिमा के दूसरे नाम हैं। नई दुनिया यदि हिंदी का सबसे प्रतिष्ठित अखबार बना तो उसकी पीछे दृष्टियां अनेक रही होंगी , हाथ भी अनेक लगे होंगे, राम और लक्ष्मण की सूरतें भी कई बदली होंगी , लेकिन जिसने खड़ाऊँ लेकर नई दुनिया को अपने प्राणों, अपने कार्यों और अपने आचरणों में धारण किया , वह नाम केवल एक है, बाबू जी श्री अभय छजलानी का। भरत चित्रकूट जा रहे हैं। श्री राम से मिलने। जल के प्रवाह में जैसे जल के भौरे की हालत होती है, वैसी हालत हैं उनकी। उन्हें देख निषाद राज उसी समय विदेह हो गए। अभय जी ऐसे भरत हैं।– भरत दसा तेहि अवसर कैसी। जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥देखि भरत कर सोचु सनेहू। भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥निरखि सिद्ध साधक अनुरागे। सहज सनेहु सराहन लागे॥होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥गोस्वामी जी कहते हैं- संत-महात्मा उनके सहज स्नेह को देख कर उनकी सराहना करने लगते हैं कि यदि इस पृथ्वी तल पर भरत का जन्म (अथवा प्रेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?
अभय जी वे रहे हैं, नई दुनिया के वे आधार पुरुष, जिन्होंने अचेतन को चैतन्य दिया, और चैतन्य को स्थिर किया। नई दुनिया ने समाज को , मालवा, निमाड़ को , और उसकी बदौलत समूचे हिंदी जगत को जो कुछ दिया है, उसे सहज संस्पर्श अभय जी ने ही दिया। बाबा राहुल बारपुते बहुत बड़े व्यक्ति थे। वे स्वयं में एक संस्थान थे। अनेक विधाओं के मर्मज्ञ, वे हिंदी पत्रकारिता के सर्वकालिक श्रेष्ठ व्यक्तित्वों में से हैं , उसी तरह श्री राजेंद्र माथुर लिखने-पढ़नेवाले बड़े फलक के व्यक्तित्व थे, लेकिन नई दुनिया की साधना , नई दुनिया से जब कुछ समय के लिए मैं अभय जी के एक सम्पादकीय प्रशिक्षु के रूप में जुड़ा , तब नई दुनिया के अंतरतम को अपने ह्रदय से संस्पर्श करके मैंने जाना, कि सबने दीं नई दुनिया को ऊंचाइयां, प्रभाष जोशी जी ने भी, आलोक मेहता जी ने भी ; उमेश त्रिवेदी जी ने भी , माननीय नरेंद्र तिवारी जी ने भी , लेकिन जिनने उसे अपनी साँसों से सम्पृक्त कर दिया, वे एक अकेले अभय जी थे। हिंदी अखबारी दुनिया की सर्वोच्चता के शिखर पर नई दुनिया पहुंचा, उसने गुणवत्ता के कीर्तिमान खड़े किये; मैं जब धर्मयुग में था और देश भर के अखबार आते तो जिस अकेले अखबार को पहले पढ़ने के लिए छीना-झपटी मचती वह नई दुनिया था, अख़बारों का भी अखबार; उसने गुणवत्ता के जिस अमृत का संधान किया, उसकी मथनी अभय जी की पत्रकारिता -साधना पर टिकी हुई थी, ठीक उसी तरह जैसे समुद्र मंथन की मथनी मंदराचल, कच्छप रूपी विष्णु की पीठ पर टिकी हुई थी
और यह इसलिए संभव हुआ कि मध्य भारत के सबसे बड़े जौहरी परिवारों में से एक बाबू लाभ चंद छजलानी के सुपुत्र को यह भी शिक्षा मिली थी कि जूता थोड़ा सा फट गया है तो उसे फेंक मत दो, सीखो; खुद उठाओ सूजा, संभालो तांत, उसे सिलो , और जब तक मरम्मत करके पहना जा सकता है , तब तक पहनो। संचय करो. समृद्ध करो , समुचित सत्कार करो । भोजपुरी में एक शब्द है मेल्हना। प्रयोग देखें। का मेल्हत बाटऽ। यह शब्द, व्यंजना मेल्हुआ से निकली है। सुमेर या अक्कड़ कल्चर के लोग भारत को इसी नाम से पुकारते थे। मालवा शब्द से ही संभवतः मेल्हुआ निकला था। मेल्हना का अर्थ मैं आज इंदौर वालों के लिए खोजने के लिए छोड़ देता हूँ। अभय जी ने कभी आलस नहीं किया। कभी मेल्हे नहीं। जो सांस थी जिंदगी की उनके, वही अखबार छापने और कलम उठाने की स्याही बन गयी। निराला जी के लिए हम लोग महाप्राण शब्द का प्रयोग करते थे। पत्रकारिता के महाप्राण अभय जी हैं। अप्रतिहत महावीर। उन्होंने वाणी का, व्यक्तित्व का , कर्तव्य का , निजता का, संचय योग्य सभी चीजों का संचय किया। निजता के संचय की एक दास्ताँ आगे बता रहा हूँ।
उन पाठकों के लिए जो पत्रकारिता से नहीं जुड़े हैं, पहले बाबू जी का एक सामान्य परिचय हो जाए– नई दुनिया के मालिक-संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री अभय छजलानी का जन्म 4 अगस्त 1934 को इंदौर में हुआ। 1955 में उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। 1963 में कार्यकारी संपादक का कार्यभार संभाला । बाद में लंबे अरसे तक वे नई दुनिया के प्रधान संपादक और संपादकीय बोर्ड के अध्यक्ष रहे। 1965 में उन्होंने पत्रकारिता के विश्व प्रमुख संस्थान थॉम्सन फाउंडेशन, कार्डिफ (यूके) से स्नातक की उपाधि ली। हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र से इस प्रशिक्षण के लिए चुने जाने वाले वे पहले पत्रकार थे। २००९ में उन्हें पत्रकारिता के लिए पद्मश्री सम्मान मिला। अभय जी ने हिन्दी पत्रकारिता की कोंपलों को बहुत करीने से सहेजकर पल्लवित होने में मदद की है।
वे भारतीय भाषाई समाचार पत्रों के शीर्ष संगठन इलना के तीन बार अध्यक्ष रहे। वे इंडियन न्यूज पेपर सोसायटी (आईएनएस) के भी 2000 में उपाध्यक्ष और 2002 में अध्यक्ष रहे। अभयजी 2004 में भारतीय प्रेस परिषद के लिए मनोनीत किए गए, जिसका कार्यकाल 3 वर्ष रहा। उन्हें 1986 का पहला श्रीकांत वर्मा राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किया गया। 1995 में वे मप्र क्रीड़ा परिषद के अध्यक्ष बने। ऑर्गनाइजेशन ऑफ अंडरस्टैंडिंग एंड फ्रेटरनिटी द्वारा उन्हें 1984 में गणेश शंकर विद्यार्थी सद्भावना अवॉर्ड दिया गया.। पत्रकारिता में विशेष योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1997 में जायन्ट्स इंटरनेशनल पुरस्कार तथा इंदिरा गाँधी प्रियदर्शिनी पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है।
वे उन लोगों में से हैं , जिन्होंने मालवा के सार्वजनिक जीवन को बहुत अंतरंगता से समृद्ध किया है। उन्होंने इंदौर में इंडोर स्टेडियम अभय प्रशाल स्थापित किया। प्रशाल; इस शब्द को देखें। इसकी भाव व्यंजना को देखें। इसके विस्तार को , इसकी शाब्दिक शुद्धता को देखें— अभय जी होना इस शब्द के चयन में जुड़ा है।
निजता का संचय देखें- और उसी में प्रेम की, स्नेह की विशदता भी छिपी है —, नई दुनिया मैंने ज्वाइन किया, एकाध दिन हुए थे, शाम की चाय का समय हुआ था। चाय पीने की इच्छा हुई। नई दुनिया का पूरा सम्पादकीय स्टाफ एक खुले हॉल में बैठता था । मैं उनकी मेज के सामने आया, पूछा, बाबू जी, चाय पिया जाए, चाय मंगाऊं? चारों तरफ एक अद्भुत सन्नाटा छा गया। भंडारी जी, शर्मा जी, भानू जी, हेमंत पाल , सभी कनखियों से एक-दूसरे को देख रहे थे। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है। अभय जी कुछ क्षण चुप रहे। फिर उन्होंने कहा-हाँ मंगाइये। चाय आयी, पांच-छह कप आई। हम सबने पिया। बाद में जब बाबू जी चले गए तो शर्मा जी ने आकर बताया, यह क्या किया आपने। जानना चाहिए। अभय जी इस तरह , सम्पादकीय सहकर्मियों के साथ चाय नहीं पीते। आज तक ऐसा नहीं हुआ है।
फिर क्या हुआ होगा अगले दिन?
आप बताइए।
अगले दिन फिर चार-साढ़े चार बज़ा। शाम की चाय का वक्त था। अभय जी कहीं बाहर गए हुए थे, या घर पर थे । वे दफ्तर आये। अपने स्थान पर बैठे। कुछ चिट्ठी-पत्री देखी। फिर बोले–ओम जी , चाय पिया जाए। चाय का वक्त हो गया है। मंगाइये। फिर जब तक रहा नई दुनिया में, शाम की चाय हम लोग उनके साथ पीते रहे। वे पिता। मैंने उन्हें हमेशा पिता के आसन पर आसीन किया। उनका आवास नई दुनिया कार्यालय के प्रांगण में ही था। रोज़ रात १२-सवा बारह बजे उन्हें उनके आवास पर पहुंचा कर ही मैं घर जाता। पूरी जिंदगी पत्रकारिता में बीती। मैंने ऐसे अखबार मालिक नहीं देखे। घर में कोई भी अलग खाना बनता, अभय जी ने अकेले कभी नहीं खाया। उन्होंने इस तरह निजता के साथ लोक का भी संचय किया है।
यह ईश्वर की अनुकम्पा थी कि कुछ समय मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। धर्मयुग में काम किया, जनसत्ता में काम किया, दैनिक भास्कर में, दैनिक जागरण में, माया में, लेकिन मेरी पत्रकारीय जीवन का सर्वोच्च रहा मुझे नई दुनिया इंदौर में अभय जी के प्रशिक्षु के रूप में काम करने का अवसर मिलना। वह मेरे लिए लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड है।
अभय जी ने यदि बचपन में कोई कविता भी लिखी है, तो उनकी उस यत्न से संजोयी डायरी के पन्ने पलटे हैं मैंने।
और, पत्रकारिता के मूल्यों का भी उन्होंने किस तरह का संचय किया था, उसकी भी एक बानगी देख लें–जिस दिन बाबा की, जिस पर श्री राजेंद्र माथुर भी बैठे थे, उस कुर्सी पर मैं बैठा, संयोग से कुछ समय बाद इंदौर के एक जाने-माने व्यक्तित्व श्री मुकुंद कुलकर्णी दफ्तर आये। हाल के दरवाजे पर ही वे ठिठक गए, और काफी देर तक ठिठके रहे। फिर जैसे क्रंदन कर उठे हों, चीख कर बोले –अभय जी, यह , कुछ रुपयों के लिए नौकरी करने आये इस किसी टुकड़हे को आपने बाबा की कुर्सी पर बैठा दिया? यह तो कुछ पैसों के लिए आया है, इसे उस कुर्सी पर जगह? पूरा हाल सन्न था। मेरी हालत तो पूछिए मत। फिर क्या हुआ, यह कभी और जानिएगा,यह वक्त यह जानने का है कि इस ऊँचाई पर प्रतिष्ठित था नई दुनिया, कि उसे मालवा-निमाड़ के पाठक देव् स्थान से कम नहीं मानते थे। और उसके सम्पादक से बड़ी ऊंची अपेक्षाएं करते थे। मेरा असाइनमेंट था–पुरातन में , जिसकी एक जागृति संस्कृति और भक्ति है, उसमें इस तरह अधुनातन मिलाना कि पुरानापन छूटे नहीं, तारतम्य बना रहे, और नए प्रयाण भी हो जाएँ। इस एक टारगेट को देख लीजिये तो आप समझ सकते हैं, कितनी विशदता, कितना बड़प्पन, कितनी बड़ी सोच, और किस बात की चिंता थी नई दुनिया के मालिकों को। और मैंने जो पाया, वह यह था कि जिसे हम अधुनातन कहते हैं, महाकाल ने नई दुनिया जैसे महापुष्पों के पुष्प कोश में जो मधु संचित किया है, उसके बिंदु मात्र है। उस मधु कोश मैं ऐसे जाने कितने अधुनातन समाहित हैं।
अभय जी आ रहे हैं धर्मयुग की याद कार्यक्रम की अध्यक्षता करने। अभिभूत हूँ। बहुत दिन बाद मिलना होगा। नई दुनिया वह जगह नहीं है, जहां पैसों के लिए काम होता रहा हो। वह दिव्य तीर्थ है पत्रकारिता की पूजा का। जानते हैं , वशिष्ठ कौन थे? वे ,सृष्टि की उत्पत्ति को जानते थे। देवता उन्हीं के हाथ से भोग लेते थे। यह अधिकार उन्हें ही मिला हुआ था। मालवा-निमाड़ में बच्चा-बच्चा उन्हें इसी रूप में देखता-जानता है। पत्रकारिता के देवता अभय जी के हाथ से भोग लेते रहे हैं। हुए होंगे कई मालिक-संपादक। लेकिन जो पत्रकारिता की देवमूर्ति बन जाएँ, ऐसे अभय जी जैसे कोई बिरले ही होंगे। प्रूफ तक की एक गलती नहीं जा सकती थी उनके अखबार में।
मेरे नई दुनिया ज्वाइन करते समय उन्होंने कहा था -मुंबई में हिंदीभाषी समाज में तो मैं दो व्यक्तियों को जानता हूँ, श्री कृपाशंकर सिंह और श्री चंद्रकांत त्रिपाठी जी को। सो आप आ रहे हैं, तो मैंने दोनों को ही आपके कार्यक्रम से जोड़ दिया है। वे आपके स्वागत में कार्यक्रम में ही नहीं आएंगे, साहित्य की पालखी भी निकालेंगे, साहित्य की दिंडी भी निकालेंगे। वे और उनके साथ मुंबई के हिंदी समाज के अनेक मान्य जन नई दुनिया की प्रतियां अपने शीश पर धारण करके चलेंगे। कृपा शंकर जी ने तो कहा है, वे दिंडी में गीत भी गाएंगे।
मित्रो,७ अप्रैल को मुंबई में हो रहे धर्मयुग की याद के इस कार्यक्रम में एक अध्याय और जुड़ रहा है। श्री रवींद्र श्रीवास्तव इन दिनों स्वदेश में हैं। बरसों-बरसों फिल्म के पेज देखते रहे हैं। धर्मयुग के बड़े सीनियर लोगों में रहे हैं। १९६२ के चीन युद्ध को लेकर उन्होंने बढ़िया उपन्यास लिखा था। उसे वे फिर लिख रहे हैं-क्यों, समारोह में हम उनसे जानेंगे। ७६ वे में चल रहे हैं वे। इस समारोह में हम उनके सत्कार को भी जोड़ रहे हैं। धर्मयुग की याद, श्री सुदीप जी का ७७ वां और श्री रवींद्र श्रीवास्तव का ७६ वां जन्मदिन। स्वागत रवींद्र जी। अभिनन्दन। बहुत-बहुत अभिनन्दन।