चुनाव से पहले हिंसा की बड़ी साज़िश ने सरकार को कानून वापस लेने के लिए किया मजबूर
प्रकाश पर्व पर राष्ट्र के नाम संदेश में एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी ने देश को हतप्रत कर दिया। ऐसे समय में जब एक साल से चल रहा किसान आंदोलन लगातार क्षीण होता जा रहा था। प्रधानमंत्री ने इसे वापस लेने की घोषणा कर के पुरे देश को अचंभित कर दिया . . शायद ही किसी को अनुमान रहा होगा की प्रधानमंत्री मोदी इस तरह की घोषणा कर सकते है। विगत वर्षो में जब भी प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम सन्देश दिया तो उसमे कई चौकाने वाले अहम् फैसलों की घोषणा की। चाहे वो नोटबंदी का फैसला हो या फिर जीएसटी अथवा महामारी के समय लाक डाउन जुड़ा मसला रहा हो। लेकिन इस बार सरकार का अपने कदम पीछे खींचने का फैसला अचंभित करने वाला था।
अपने संबोधन में पीएम मोदी ने कहा कि, मैं सभी देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से कहना चाहता हूं कि हमारे प्रयास में कमी रही होगी कि हम उन्हें समझा नहीं पाए. कृषि में सुधार के लिए तीन कानून लाए गए थे, ताकि छोटे किसानों को और ताकत मिले। सालों से ये मांग देश के किसान और विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री कर रहे थे. आज गुरू नानक जी का पवित्र प्रकाश पर्व है. आज मैं आपको ये बताने आया हूं, कि हमने तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला किया है. इस महीने के अंत में शुरू होने जा रहे संसद सत्र में तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की प्रक्रिया शुरू कर देंगे. मेरी किसानों से अपील है कि अपने घर , खेतों में लौटें.
इस घोषणा के बाद से प्रतिक्रिया और बहस का दौर शुरू हो गया . किसान नेता इसे अपनी जीत बता रहे है वही विपक्ष, सरकार के घुटने टेकने का जश्न मना रहा रहा है . कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘”देश के अन्नदाता ने सत्याग्रह से अहंकार का सर झुका दिया. अन्याय के खिलाफ ये जीत मुबारक हो. जय हिंद, जय हिंद का किसान “। आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार किसान नेता राकेश टिकैत ने तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि किसानों का आंदोलन तत्काल वापस नहीं होगा, हम उस दिन का इंतजार करेंगे जब कृषि कानूनों को संसद में रद्द किया जाएगा
करीब एक साल से चल रहे किसान आंदोलन में उतार चढ़ाव के कई दौर आये लोगो ने २६ जनवरी को लाल किले पर हिंसा का तांडव देखा तो लखीमपुर खीरी में हादसे के गवाह भी रहे। इस दौरान सरकार और किसान नेताओं के बीच ग्यारह दौर की वार्ता हुईं लेकिन कोई समझौता नहीं हो सका। किसान नेता तीनो कृषि कानून की वापसी पर अड़े रहे, वही सरकार इस बात पर जोर देती रही कि किसान कानूनों पर तर्क संगत वार्ता करे अगर कानून के किसी प्रावधान पर किसानो को आपत्ति है तो हम उसे बदलने के लिए तैयार हैं। ग्यारह दौर की वार्ता के बाद भी किसी निर्णय पर न पहुंचने के बाद सरकार ने वार्ता स्थगित कर दी। बाद में प्रधानमंत्री ने एक रैली में किसानो को संदेश देते हुए कहा कि सरकार केवल एक फोनकाल की दूरी पर है किसान अगर खुले मन से बात करना चाहते है तो जब चाहें सरकार वार्ता के लिए तैयार है। लेकिन इन सबके बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला . कोविद महामारी के दौरान एक समय ऐसा भी आया था जब सरकार ने गाज़ीपुर और सिंधु बार्डर पर लगे तम्बू हटाने का फैसला ले लिया था लेकिन तब किसान नेता राकेश टिकैत के आसुओं ने आंदोलन को जीवन दान दे दिया था। अब ऐसे समय में जब आंदोलन मृतप्राय होता जा रहा था , प्रदर्शनकरियों की संख्या हज़ारो से सैकड़ो में पहुंच चुकी थी , किसान नेताओ में भी आपसी गुटबाज़ी तेज हो चुकी थी, आंदोलन का चेहरा बने योगेंद्र यादव को किसान संघर्ष संयुक्त समिति से हटाया जा चूका था , कृषि कानून को वापस लेना निश्चित रूप से चौकाने वाले फैसला था।
तीनो कृषि कानून के वापस लेने के फैसले पर अब कई तरह के कयास लगाए जा रहे है। क्या आने वाले विधसानसभा चुनाव के मद्देनज़र ये फैसला लिया गया ? क्या कानूनों की वापसी का फैसला मोदी सरकार के लिए मास्टर स्ट्रोक साबित होगा या फिर आत्मघाती कदम होगा। . क्या अराजक तत्वों के आगे सरकार ने घुटने तक दिए। फैसले पर कई तरह के सवाल भी उठ रहे है . क्या पंजाब , हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ किसान मिल कर पुरे देश के किसानों का भविष्य तय कर सकते है ?
प्रधानमंत्री के इस फैसले से सरकार की साख पर भी सवाल उठने लगे है . सरकार लगातार एक साल तक सरकार कृषि कानूनों की अहमियत बताती रही और इसे किसान के हित में लिया गया फैसला बताती रही तो फिर अचानक उसे वापस क्यों ले लिया। क्या दबाव के आगे सरकार ने घुटने तक दिए या फिर चुनावी हित किसानों से ऊपर है . लोगों के बीच एक राय ये भी बन रही है कि मोदी सरकार अहम फैसले तो ले लेती है लेकिन विरोध के आगे घुटने टेक देती है । सरकार ने कोई पहली बार अपने फैसले वापस नहीं लिए है। इसके पहले भी भूमि अधिग्रहण कानून को सरकार ने वापस ले लिया था। नागरिकता संसोधन कानून लागु होने के बाद भी सरकार का रवैया इसके प्रति ढुलमुल ही रहा है। शहीन बाग़ हुए प्रदर्शन के बाद एनआरसी पर सरकार ने अपने कदम वापस खींच लिए । तीन तलाक पर कानून भी क्षीण नज़र आ रहा है। सोशल मीडिया पर इस तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है क्या ५६ इंच का सीना अब ५ इंच का हो गया।
चार राज्यों में होने वाले चुनाव ने भी सरकार को पीछे हटने पर मज़बूर कर दिया . खासकर उत्तर प्रदेश ,पंजाब और उत्तराखंड के चुनाव पर इसका खास असर देखने को मिल सकता है। सवाल उठता है क्या कानून वापसी के फैसले का लाभ सरकार को मिलेगा को या फिर कमजोर होती छवि से उसके अपने वोट ही खिसक जायेंगे।
एक तरह से देखे तो कृषि कानून का सबसे ज्यादा विरोध पंजाब में ही हुआ इसलिए वहां के किसानो को नाराज़ करके किसी भी पार्टी को भाजपा से हाथ मिलाना कठिन था। कांग्रेस से अलग हुए पूर्व मुख़्यमंत्री अरमिंदर सिंह ने पहले ही संकेत दे दिए थे की अगर भाजपा किसानो के समाधान का रास्ता निकलती है तो उसके साथ खड़े हो सकते है। दो दशकों से भाजपा के साथ गठबंधन वाली अकाली दल ने भी किसानो की बड़े विरोध के चलते ही सरकार से अलग होने का फैसला लिया था। अब कृषि कानूनों के वापसी के बाद अकाली दल ,अरमिंदर सिंह और भाजपा का एक नया गठबंधन आकर ले सकता है। पाकिस्तान की सीमा से लगे होने के कारण राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से पंजाब एक महत्वपूर्ण प्रदेश है भाजपा सरकार हर हालत में वहां एक राष्ट्रवादी सरकार देखना चाहती है , खालिस्तानी आतकवादियों के साथ नज़दीकिया बढ़ा रही आम आदमी पार्टी भी पंजाब में पैर पसार रही है . बंगाल हाथ से निकल जाने के बाद प्रधानमंत्री पंजाब में इस तरह की कोई सरकार नहीं चाहते जिससे देश की सुरक्षा पर गंभीर असर पड़े । इसी खतरे को देखते हुए पिछले महीने सरकार ने सीमा सुरक्षा कानून में अहम बदलाव किया था। सरकार के झुकने के पीछे पंजाब एक अहम् कारण है .
उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन पश्चिम उत्तर प्रदेश के कुछ जाठ बहुल इलाकों तक ही सीमित था इसका बहुत असर उत्तर प्रदेश की सियासी राजनीति पर नहीं होने वाला था । लेकिन कानून वापसी से सरकार की छवि को धक्का जरूर लगा है . कुछ लोगों का मानना है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाठ वोट छिटकने के डर से सरकार को ये अहम फैसला लेना पड़ा। लेकिन सवाल उठता है एक साल से आंदोलन कर रहे किसान मात्र कानून वापसी भर से भाजपा के साथ खड़े हो जायेंगे। कयास तो बहुत से लगाए जा रहे है माना जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश , राजस्थान के उपचुनाव में करारी शिकस्त लखीमपुर कांड, अपनों का बढ़ता विरोध, आंदोलन से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मोदी की छवि को के नुकसान पहुंचने जैसे कई अहम् कारण थे
लेकिन देखा जाय तो उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन कृषि कानूनों से कहीं ज्यादा राजनैतिक ही था कानून वापसी के प्रधानमंत्री की घोषणा के तुरंत बाद किसान नेता राकेश टिकैत के बयान से ये साफ हो गया है राकेश टिकैत ने तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि किसानों का आंदोलन तत्काल वापस नहीं होगा, हम उस दिन का इंतजार करेंगे जब कृषि कानूनों को संसद में रद्द किया जाएगा .संयुक्त किसान मोर्चा ने सिंधु बॉर्डर खाली न करने का एलान करते हुए सरकार के सामने कई शर्तें रखी है जाहिर है कि आंदोलन किसी तरीके से खींच कर चुनाव तक ले जाने की मनसा है जिससे उसका सियासी फायदा उठाया जा सके।
बहुत से कृषि विशेषज्ञों ने भी अपनी प्रतिक्रिया में कहा की तीनों कृषि सुधार कानूनों को वापस लेने की घोषणा के साथ ही देश के कृषि क्षेत्र में सुधार की बहुप्रतीक्षित उम्मीद फिलहाल क्षीण हो गई है।
ख़ुफ़िया एजेंसियों के हवाले से ये खबर आ रही थी की किसान आंदोलन की आड़ में कई आंतकी गुट सक्रिय है जो चुनाव से ठीक पहले बड़े हिंसा और आगजनी की घटनाओ को अंजाम दे सकते है। मोदी सरकार की सबसे बड़ी चिंता भी यही थी . . दरअसल उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन मोदी विरोध पर टिका हुआ है। आंदोलन की आड़ में सभी मोदी विरोधी तकते एक साथ खड़ी हो गयी है। उत्तर प्रदेश का चुनाव इसलिए भी अहम् है क्यों कि २०२४ का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही हो कर जायेगा । इसके संकेत भी देखने को मिल रहे है संयुक्त किसान मोर्चा ने सिंधु बॉर्डर खाली न करने का एलान कर अपनी रणनीति साफ कर दी है
जाहिर है सरकार को ऐसे कदम उठाने के लिए मजबूर किया जाए जिससे टकराव की स्थिति पैदा हो और इसका दोष सरकार के ऊपर मढ़ा जा सके. मोदी सरकार को इन परिस्थितियों से लड़ना चुनौतीपूर्ण होगा।
कृषि कानून वापसी के फैसले ने एक नई परिस्थिति को जन्म दे दिया है। मोदी विरोधी ताकते फिर से सक्रिय हो सकती है नागरिकता संशोधन कानून , तीन तलाक और धारा 370 की वापसी की मांग भी तेज हो सकती है।
आर्थिक मंदी से जूझ रही सरकार के लिए आने वाला समय निश्चित रूप से कठिन साबित होने वाला है . पेट्रोल डीज़ल के दाम , मॅहगाई , और बेरोजगारी जैसे मुद्दों के साथ साथ आने वाली नई परिस्थितियां सरकार को संकट में डाल सकती है। मोदी सरकार को इससे लड़ना आसान नहीं होगा।