अम्मा का घराक: एक बेमिसाल लेखक की बेमिसाल किताब
– ओम प्रकाश
मुंबई के हिंदी पत्रकारों में पंडित गोपाल शर्मा का कोई सानी नहीं। गज़ब की मेधा, खूब अच्छी स्मृति, सधी हुई कलम और जितना जरूरत हो उतना ही सुनो का उन्हें ईश्वर से वरदान मिला हुआ है। पंडित जी मथुरा से हैं। मुंबईवासी हो गए हैं। सो मथुरा की भंग और मुंबई की चंग दोनों के रंग उनकी कुंडली में हैं। जनसत्ता की सबरंग पत्रिका में उनकी खरी-खरी जिन लोगों ने पढ़ी है, वे जानते हैं, पंडित जी की धमक, धौंस और घुमक्कड़ पांवों की पहुँच कहाँ-कहाँ है। और,वे जहां भी पहुंचे, पूरी तन्मयता और तल्लीनता से पहुंचे। मुंबई शहर का हिंदी जगत एक लम्बे अरसे तक उनकी खरी-खरी का मुरीद हो गया था। तो यह उसी घुमक्कड़ी और कुछ-कुछ खिलंदड़ सधुक्कड़ी का नायाब नतीजा था।
धर्मयुग और पंडित जी जिस दुनिया के थे, उसमें कमोबेश छत्तीस का रिश्ता था। पंडित जी ठहरे कम्युनिस्ट। ब्लिट्ज वालों से वे खूब घुले-मिले थे, और १९७७-७८ से ही उसके सम्पादकीय विभाग से भी जुड़े थे। वहां प्रगतिशीलता का ठप्पा था। मुनीश सक्सेना सोवियत संघ हो आये थे और नौटियाल जी व श्री शम्सुल इस्लाम भी किन्हीं कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ्तर आते-जाते थे। हम धर्मयुग वाले ज्यादातर लोग ठहरे सोशलिस्ट। जेपी की क्रांति के समर्थक। खूनी क्रांति हमारे जिन्स में ही नहीं थी। लेकिन, बदलाव समर्थक और किसी खूंटे से बहुत जकड़ कर बंधे न होने से मेरा पंडित जी वाली दुनिया में भी आना-जाना था। नौटियाल जी से भी मिलना-जुलना होता। मुझे वहां तक ब्लिट्ज में उस समय मुख्य संवाददाता रहे श्री प्रीतम कुमार सिंह त्यागी खींच ले गए थे। पत्रकार कम , लेकिन वे गज़ब के सामाजिक व्यक्तित्व हैं। दूसरों की मदद में ही उनकी सारी तनख्वाह निकल जाती। दुनिया में मनुष्यता के जो अप्रतिम उदाहरण होंगे श्री त्यागी की उनमें शुमार होगी। त्यागी जी की समाज सेवा और उनका निस्वार्थ भाव मेरा मन मोहे रहता। ७८-७९ के उसी दौर में पंडित गोपाल शर्मा से कब परिचय हुआ, और कब यह गहरी दोस्ती में तब्दील हो गया, यह मुझे पता ही नहीं चला। धर्मयुग और ब्लिट्ज की दूरी न कभी हम लोगों के जेहन में आयी और न कभी किसी किस्म का व्यवधान बनी। बीच में वे दैनिक भास्कर से जुड़े। बैलार्ड पीयर में दफ्तर था। अक्सर शाम को मैं भी वहां पहुँच जाता। विज्ञापन में थीं अरुणा ठाकुर। अरुणा खूब टैलेंटेड थीं। अपने काम को अच्छे से जानती थीं।.और खूब बिंदास भी थीं। हमारी मित्र मंडली में अरुणा भी शामिल थीं। और, पंडित गोपाल शर्मा तब तक एक अच्छी-खासे मठाधीश की भूमिका में भी आ गये थे। कुछ पत्रकार, कुछ विज्ञापन वाले और अखबारी विधा से जुड़े कई और लोग उनके ठीहे पर आते-जाते रहते। पंडित जी उनकी पत्रकारिता भी सुधारते और बन पड़ा तो कहीं काम-काज भी दिलवाते। पंडित जी ने मेरे लिए भी मध्यप्रदेश के किसी अख़बार में संपादक बनाये जाने की पैरवी की थी, जो बात परवान नहीं चढ़ी।
पंडित जी की मुंबई में दूध की दुकान थी। सो कुछ किराया वगैरह शायद आता रहता था। घर से खूब झगड़ कर बैठे थे। कुर्ला के एक लॉज में रहते थे। और अभी भी शायद वहीं रहते हैं। इस लॉज से जुड़े, अकेले रहने-सहने के अनेक किस्से हैं, जैसे वहां जिंदगी बड़े मौज में गुजर रही हो, न कोई चिंता न कोई जिम्मेदारी; लेकिन उनके कहानी संग्रह अम्मा का घरात की कहानी जोगी मत जा रे जोगी ने आखें खोल दी हैं। इस लॉज के बारे में सुकून ही सुकून की जैसी मैंने जो कल्पित दुनिया बना रखी थी, जहां सब कुछ मज़ा मज़ा ही था, वैसा कुछ नहीं है। वहां तो दर्द और पलायन का एक गहरा समुन्दर छुपा है। जो हमारी ही दुनिया में आकर जीना और रहना चाहता है, लेकिन कहीं कोई परायापन है जो उसे उत्तर और और उत्तर की दुनिया में ठेल देता है। किसी अनजानी, अनसमझी तपस्या की ओर। मलंग बाबा बैठ जाते हैं शिवालय में, लेकिन रार है अपने से कि देह का गर्व छुपा नहीं पाते; जाते हैं उत्तर लेकिन ऊदलपुर की ममतामयी माँ और आंसू बहाती स्त्री के आँचल में कुंड की राख की गाँठ बांधना नहीं भूलते। दुःख और दर्द दोनों हो रहा है। पंडित जी को इस कहानी के जरिए जितना समझ सका हूँ मैं, उतना उन अनेक प्रसंगों से नहीं समझ सका था, जिसके जरिये हम उनकी दुनिया का आकलन करते थे। ठेल दीजिए मटेरियलिस्टिक इंटरप्रिटेशंस को कहीं दूर; और गले लगा लीजिये पंडित जी को। जादू की झप्पी दे दीजिये- ऑल इस वेल फ्रेंड, ऑल इज वेल। अम्मा की घराक अब आगे पढ़ने की जरूरत नहीं रही मुझे। क्यों शब्दों के ढेर लगाऊं। फिर आँखें पढ़ भी नहीं पा रहीं। वे प्रार्थना में मुंद गयी हैं ऊदलपुर की स्त्री के कुशल-क्षेम के लिए। हाँ, इस कहानी को संपादित करने का मौका मिला होता तो अंतिम हिस्सा मैं जरूर बदल देता। ऊदलपुर की स्त्री कुंड की राख को आँचल में न बांधती, उसे पानी डाल कर मिट्टी में मिला देती ,लोग समझते कि था कोई बंधन जिसका उसने तर्पण किया है। स्त्री को भी तो उत्तर की ओर तपस्या पर जाने का अधिकार है। ,
१९८८ में मुंबई जनसत्ता शुरू हुआ तो मैं न्यूज़ डेस्क पर आ गया। पंडित जी भी रिपोर्टिंग में आये। कुछ टुन्न-पुत्र भी हुई। लेकिन मैल और मलाल कभी नहीं बना। न यह मेरे स्वभाव में है और न पंडित जी के। लेकिन साथ-साथ की नौकरी, और जिसमें कोई बड़ा ध्येय न जुड़ा हो, अक्सरहां पुराने रिश्तों को कमजोर कर देती है। मेरे और पंडित जी के रिश्ते में भी यही हुआ। लेकिन यह दूरी कभी इतनी नहीं बनी, कि हम दोनों हाथ उठाकर उसे नाप न लें। कल भी, आज भी और हमेशा ही शायद यही स्थिति रहेगी। उन्होंने कुछ अच्छा किया तो उसे किससे बांटेंगे? और मैंने भी कुछ अच्छा किया तो उसे किससे शेयर करूंगा? सुख और दुःख दोनों के वक्त हमें एक-दूसरे की याद आनी ही है।
जनसत्ता ने उन्हें बहुत मशहूरियत दी। उनका स्तम्भ खरी-खरी मुंबई की पत्रकारीय धरोहर का बेमिसाल दस्तावेज बन गया। हिंदी का आम पत्रकार बहुत नपे-तुले कदम चलता है। उससे परे जाने की समझ भी नहीं होती, सूझबूझ और तासीर भी नहीं। गए तो फिर मटिया ही जाते हैं। लेकिन पंडित जी ने खरी-खरी में उन सारी डगरों को नापा जो किसी भी नगर, महानगर में समाये होते हैं। उनकी कई रपटें भी बहुत उल्लेखनीय रहीं। ९०-९२ के दौर में जनसत्ता ने जो असीम ऊंचाइयां हासिल कीं, उसमें पंडित जी जैसे कई जानकार लोगों का विशिष्ट योगदान था। अख़बार में रहते हुए भी वे अख़बार की निर्द्वन्द्व आलोचना कर सकते थे, यह खूबी और खासियत उनमें ही थी। और, मेरी समझ है कि इनके सहकर्मियों में से कइयों को उनकी इस खूबी का लाभ मिला होगा। जनसत्ता का जिक्र करते हुए मुझे बरबस ही जय प्रकाश शाही याद आ रहे हैं। रिपोर्टिंग का गज़ब का हुनर था शाही जी में। हिंदी पत्रकारिता में रिपोर्टिंग की वैसी समझ बहुत कम मिलती है। जनसत्ता ने वाकई उस जमाने में कई-कई करामात किये थे। प्रभाष जी का जादू तो मुंबई के सिर चढ़कर बोल ही रहा था। शाही जी और पंडित जी दोनों कुर्लावासी। दोनों में अंतरंगता भी खूब थी। कहने में उज्र नहीं कि रिपोर्टिंग के कई गुर मैंने शाही जी से सीखे। अखबारी बदमाशी भी खूब थी। कई बार होटलों पर पडी पुलिस रेड्स में कॉल गर्ल्स के भाव भी छप जाते। खबरें चेक करते समय मैं हैरान होता। पुलिस अब प्रेस रिलीज़ में भाव भी बताने लगी? शाही जी से पूछा तो उन्होंने कहा, जी पुलिस की प्रेस रिलीज़ में होता है। खैर एक दिन प्रेस रिलीज़ चेक किया। वहां किसी किस्म का कोई भाव नहीं दिया गया था। जबकि अख़बार में खूब ठिकाने से छपा था। पूछा तो शाही ने जवाब दिया-बॉस, एकदम करेक्ट रेट है।आप जिससे चाहें चेक करा लें। ऐसी परिस्थितियों का सामना कई अख़बारों में पड़ा है। कहीं क्रिकेट स्कोर बोर्ड चार्ट बन कर छपेगा या सादा, इस पर सत्ता लगते देख कर। या देश की एक बड़ी घी मंडी में अख़बार में क्या रेट छपेगा, इस पर भाव ऊंचा-नीचा होते देख कर। जिसके भाव गिरा दिए गए वो बेचारा गया बाजार के भाव। ये सहज अखबारी चिमगोइयाँ हैं, जिनका जिक्र मैंने केवल पत्रकारीय मौज के लिए किया। जनसत्ता वाली घटना का जिक्र केवल इसलिए कि जय प्रकाश शाही जैसे रिपोर्टर जब रिपोर्टिंग करते हैं, तो खबरों के पीछे की खबरों की भी गहरी सुध रखते हैं। जनसत्ता में हम लोगों के दौर में किस तरह का खुशनुमा माहौल था, यह उसका भी हवाला है।
फिर, पंडित जी हमारा महानगर से भी जुड़े। उसके लिए कहानियां लिखीं। मेरी समझ है कि उन्होंने महानगर में जो लिखा, वह जनसत्ता में उनके लिखे का ही कॉन्टीनुएशन रहा होगा। उन दिनों मैं मुंबई में नहीं था, इसलिए महानगर में उनके लिखे को पढ़ने से वंचित रह गया। शिल्प और कथ्य दोनों खूब है उनमें। सागर सरहदी ने सही लिखा है,–“पंडित जी की कहानियों में गैरमामूली समझ, गहरी मानवीयता, मीनिंगफुल, धीमी-धीमी आंच लगनेवाली कहानियां, जो आपको अपने जज्बे में जकड़ लें, आपको सांस न लेने दें।” और पंडित जी ने भी भूमिका में बहुत साफगोई से अपनी बात रखी है। मेरे जैसे गैर कहानीकार के लिए इससे अधिक कुछ कह पाना मुश्किल ही है।
किताब स्व. रमाकांत आज़ाद को समर्पित है। कुर्ला के लॉज में वे भी रहते थे। मेरे भी अच्छे परिचित थे। बहुत बढ़िया इंसान। बहुत जानकार। कोई रोब -दाब नहीं। बिलकुल सहज। पंडित जी ने अच्छा किया है, जो यह किताब उन्हें समर्पित की। कोई बड़ी बात नहीं, अम्मा की घरात की किसी कहानी में आज़ाद जी का भी दर्द छिपा हो।
बधाई पंडित जी। यात्रा चलती रहे, अनंत और अनवरत। खूब लिखा है आपने। बहुत-बहुत अच्छा लिखा है आपने। इतनी अच्छी कहानियां लिखने पर मैंने भी आपको पंडित जी कह कर सम्बोधित किया। यह उपाधि नौटियाल जी की थी। तो यह एक प्रमोशन भी मैंने दिया आपको। लेखकीय प्रतिभा और उम्र दोनों के हिसाब से यह देय था आपको। इसकी भी बधाई स्वीकारें।