पूर्वांचल को देश और दुनिया में अव्वल बनाने की मुहिम
पूर्वांचल प्रथम प्रवास- प्रव्रजन प्रभावित इलाकों के आर्थिक-औद्योगिक विकास और उसके लिए जरूरी सांस्कृतिक बदलाव का मीडिया मंच
पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड , छत्तीसगढ़ और उससे लगा अवध, पूर्वी मध्य प्रदेश, उत्तरी ओडिसा और पश्चिमी पश्चिम बंगाल का पूर्वी भारत का एक बड़ा इलाका पिछले कई सौ साल से आर्थिक-औद्योगिक दृष्टि से पिछड़ा व अविकसित है,और प्रवास- प्रव्रजन,की असहनीय पीड़ा झेल रहा है। प्रवास- प्रव्रजन व उससे जुड़े विस्थापन का दुनिया का संभवतः यह सबसे बड़ा क्षेत्र है । गिरमिटिया मजदूरी के ज़माने से लेकर हाल-फिलहाल कोरोना काल में आयी प्रवासी बाशिंदों , कामगारों, मजदूरों की घर वापसी में हुई समस्या तक,जाने कितने ऐसे प्रसंग हैं जब इस इलाके के लोगों की किस्मत गरीबी, लाचारी और बेबसी को लेकर ही लिखी गयी है, और स्थितियां न सुधरीं तो आगे भी न जाने कब तक ऐसे ही लिखी जाती रहेगी।
इस इलाके के विकास और बढ़ाव के लिए इन दिनों राज्य सरकारें भी सक्रिय हैं, और समाज में भी इसके लिए अंतश्चेतना जागृत हुई है। दोनों ही प्रयत्नों को साथ व सहयोग देने, उन्हें जोड़ने और व्यवस्थित करने,की जरूरत है। इन प्रयत्नों को बड़े परिणामों पर पहुंचाने के लिए सैद्धांतिक समझ, संकल्पना और सातत्य की भी जरूरत है। विकास के मानक भी तय किये जाने चाहिए। हमारी समझ है कि पूर्वांचल का पिछड़ापन तभी दूर होगा, यह इलाका तभी समृद्ध और समुन्नत बनेगा, जब इस इलाके को उद्योगों,और व्यापार- व्यवसाय से जोड़ा जाएगा, श्रम और अध्यवसाय को महत्व दिया जाएगा, परंपरागत उद्योगों -उद्यमों और उनके केंद्रों को पुनर्जीवित किया जायेगा व उन्हें आधुनिक बनाया जाएगा, स्वदेशी प्रणाली को नये सिरे से संजोया जायेगा व खेती-किसानी को पूरक उद्यमों से जोड़ा जाएगा तथा नौकरी के बदले काम -धंधे, उद्योग-उद्यम, व्यापार-व्यवसाय, श्रम और रोजगार की संस्कृति बनाई जाएगी। इनके साथ ही, उन सामाजिक-सांस्कृतिक अवरोधों को भी दूर करने की जरूरत है, जो विकास और बढ़ाव के रास्ते में रोड़ा बनते हैं। विकास को सबका बनाने और उसे सब तक पहुंचाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सही साथ, सहयोग और सहकार भी जरूरी है। इसके लिए सूचना और संवाद भी सही रखने होंगे।
पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान की संस्थापना इन्हीं उद्देश्यों को लेकर की गयी है। संस्था अनौपचारिक रूप से २०१२ से काम कर रही है, लेकिन इसकी विधिवत स्थापना १६ सितम्बर २०१५ को उस दिन की गयी, जिस दिन अखबारों में यह खबर छपी कि लखनऊ में चपरासी की ३६८ भर्तियों के लिए २३ लाख से अधिक लोगों ने अप्लाई किया है, जिनमें २५६ पीएचडी और सवा लाख से ज्यादा स्नातक, परास्नातक और इंजीनियरिंग आदि के पदवीधारी छात्र हैं। पूर्वांचल के समूचे इलाके में कुछ थोड़े-से फेर-बदल के साथ दुर्दशा का आलम यही है। जैसे पूरा का पूरा इलाका ही नौकरी की तलाश में सड़कों, चौराहों पर आ खड़ा हुआ है। इस उदाहरण से स्थिति की भयावहता तो स्पष्ट ही है, यह बात भी उजागर होती है कि इस स्थिति को बदलने के लिए किन्हीं वक्ती उपायों और तौर-तरीकों से काम नहीं चलेगा। स्थिति तभी बदलेगी जब बहुत बुनियादी स्तर पर काम किये जाएंगे और विकास और बढ़ाव के प्रारूप भी खूब धो-पोंछ कर सामने रखे जाएंगे। यह कोई संयोग नहीं है कि इस इलाके में सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की भी कोई बड़ी तरंग बरसों से नहीं बनी है। सम्पूर्ण क्रांति की लहर उठी लेकिन जल्द ही शांत हो गयी। जबकि जातीय गिरोहबंदी होने और उसी तरह के राजनीतिक ध्रुवीकरण होने जैसे प्रतिगामी विचार स्थिरता पा गए हैं। भ्रष्टाचार, छीना-झपटी, हिंसा, राजनीतिक बुराइयां व सामाजिक विद्वेष आदि भी स्थाई भाव बन गए हैं। कहना न होगा कि इन स्थितियों को बदलने के लिए बहुत संलग्नता से अलग-अलग स्तरों काम करने की जरूरत है। इसमें समाज और सरकार दोनों को ही लगना होगा, और उन अंतरालों को भी भरना होगा, जो काम की अधिकता से या नियोजन की कमी से बीच-बीच में छूट जाते हैं।
दुर्भाग्य से देश का यह पूर्वी इलाका अभी भी सामंती संस्कारों की मार झेल रहा है। अर्थव्यवस्था अभी भी खेती-किसानी पर टिकी है। परंपरागत उद्योग-उद्यम और पूरक खेती-किसानी ख़त्म हो चुकी है,और किसानों का एक बड़ा हिस्सा भी सीमान्त हो चुका है। औद्योगिक गतिविधियां तो ठप थीं ही,व्यापार-व्यवसाय के तौर-तरीके भी नये नहीं हो सके हैं। विश्वविद्यालयी शिक्षा में अभी भी मैकाले का भूत डोल रहा है। अफसरशाही लोक सेवा से कोसों दूर है। तकनीकी जानकारी, वैज्ञानिक सोच, अध्यवसाय, जोखिम लेने की क्षमता, उद्यमिता आदि के मामले में भी पूरा इलाका पिछड़ा हुआ है। नागरिक अधिकार, समता, समानता, स्त्रियों की बराबरी आदि के मुद्दे भी पीछे छूटे हुए हैं। पिछले कुछ वर्षों में प्राकृतिक संसाधनों का भी भीषण दोहन हुआ है। पेड़-पौधे, पशु-पंछी, जल, जंगल, जमीन आदि सबसे जैसे एक भीषण संघर्ष चला है। स्थितियां न बदलीं तो यह संघर्ष और बड़ा हो सकता है। राजनीति भी ऐसे ही संघर्षों को बढ़ावा दे रही है। स्थितियां बढ़ती आबादी से भी बिगड़ी हैं। लेकिन दुर्भाग्य है कि बढ़ती आबादी को रोकने के लिए भी कोई कारगर उपाय नहीं किये गए हैं।
पूर्वांचल विकास सम्मेलन अपनी स्थापना के बाद से ही पू.वि.प्रतिष्ठान आर्थिक-औद्योगिक विकास के लिए उत्प्रेरक बनने और उसके लिए जरूरी प्रारूप बनाने की दिशा में प्रयत्नशील है। इन बातों को लेकर राजनेताओं, उद्योगपतियों और प्रशासनिक अधिकारियों से निरंतर चर्चाएं हुई हैं,और जमीनी स्तर पर भी चेतना फैलाने की कोशिश की गयी है। इस सिलसिले में नवंबर-दिसंबर २०१८ में बनारस को टेक्सटाइल, जौनपुर को आईटी और मिर्ज़ापुर को पर्यटन का केंद्र बनाने को लेकर तमाम जिम्मेदार लोगों से विस्तृत चर्चाएं हुईं। औद्योगिक घरानों से भी बातचीत की गयी। पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में मेडिकल काम्प्लेक्स बनाने को लेकर भी बात हुई। बातचीत के दायरे में परंपरागत उद्योगों को पुनर्जीवित करने, अधुनातन तौर-तरीकों से उनका मिलान करने, स्वदेशी प्रणाली को नए सिरे से संजोने और नौकरी का बदले काम-काज, की संस्कृति को प्रोत्साहन देने जैसे मुद्दे भी शामिल थे, जो पूर्वांचल के आर्थिक-औद्योगिक विकास को बहुत दूर तक प्रभावित कर सकते हैं। इस बारे में भी बात हुई कि सरकार के प्रयत्न जमीनी स्तर पर किस तरह फैलाये जा सकते हैं।
आर्थिक-औद्योगिक विकास और औद्योगीकरण के मुद्दे को लेकर ९ से १३ अप्रैल, २०२० को जौनपुर में पांच दिनों का एक पूर्वांचल विकास सम्मेलन भी प्रस्तावित किया गया। जिसमें देश और विदेश से तकरीबन ४०० जाने-माने विशेषज्ञ, उद्यमी, राजनेता, शिक्षाविद, और समाजसेवी आमंत्रित किये गए। इरादा था कि पूर्वांचल के जो लोग देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में विशेषज्ञता से काम कर रहे हैं, उनकी प्रतिभा को उनके घर-गांव की ओर भी मोड़ा जाए,और उसे विकास की गति को तेज करने का जरिया बनाया जाये। कोरोना की वजह से यह सम्मेलन ऐन वक्त पर रोकना पड़ा लेकिन इसे लेकर तकरीबन साल भर जो तैयारियां चलीं,और देश -विदेश तक जो मंत्रणाएं हुईं, उन्होंने पूर्वांचल के आर्थिक-औद्योगिक विकास की आवश्यकता को प्राथमिकता के रूप में निरूपित किया और इस चेतना को भी विस्तार दिया कि अपने घर-गांव की बेहतरी के लिए कर्तव्यबद्ध होकर काम करने की जरूरत है। लोकोपकार की यह बात पूर्वांचल की अंतःप्रवृत्ति में भी है। इन अभियानों के परिणाम हमें भविष्य में फलते-फूलते देखने को मिलेंगे।
जौनपुर के इस पूर्वांचल विकास सम्मेलन को क्षेत्रीय इतिहास लेखन को बढ़ावा देने, नागवंशीय जातियों को सशक्त बनाने के लिए बौद्ध परिपथ की तर्ज पर नाग परिपथ बनाने, जौनपुर के जमैथा में नाग माता मनसा/जरत्कारु के जन्म स्थान को विकसित करने, स्त्री बुद्ध कही गयीं अष्ट ताराओं को जौनपुर में फिर से प्रतिष्ठित करने और पूर्वांचल के शौर्य स्थल रहे जफराबाद के मनहेच किले को पूर्वांचल के शौर्य स्थल के रूप में विकसित करने के बहुविध उद्देश्यों से भी जोड़ा गया। साहित्य और संस्कृति के विस्तार पर भी नज़र रखी गयी। कोरोना ख़त्म हो, तो पूर्वांचल विकास सम्मेलन फिर आकार लेगा और हमारे कई प्रयत्नों को परिणाम देगा।
यह सुखद संयोग है कि जिन मुद्दों को लेकर हम काम कर रहे थे, केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार ने भी उनमें से कई मुद्दों को प्राथमिकता दी है। इनमें स्थानीय उत्पादों को महत्व देना, उद्योग-उद्यम के पुराने केंद्रों को पुनर्जीवित करना, खेती-किसानी को पूरक उद्यमों से जोड़ना जैसे मुद्दे शामिल हैं। सरकारें उद्योग लगाने के लिए उद्योगपतियों से भी मिल रही हैं, और निवेश भी आकर्षित कर रही हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के विकास के लिए पूर्वांचल विकास बोर्ड भी बनाया है। यह सुखद है कि विकास के कामों को लेकर पूरे समाज में संगति और स्वीकृति बन रही है।
संवाद और अभियान पू.वि.प्रतिष्ठान की बड़ी भूमिका विकास के कामों के लिए उत्प्रेरक की है। और, यह सुखद है कि समाज के विभिन्न वर्गों के बीच संवाद बनाने और जड़बद्ध हो चुकीं कुरीतियों को मिटाने के लिए चलाये गए हमारे कई अभियान बेहद प्रभावी रहे हैं। उनके असर दूर तक जाएंगे। भोजपुरी फिल्मों, म्यूजिक एलबम्स और ऑर्केस्ट्रा नाचों आदि में फ़ैली अश्लीलता के खिलाफ;चलाया गया हमारा अभियान change.org पर शीर्ष अभियानों में शामिल किया गया है। २८ जुलाई, २०१८ से मुंबई, मालाड के नवजीवन विद्यालय से शुरू किये गए इस अभियान का चेहरा जानी-माने गायिका पद्मश्री डॉ. शोमा घोष हैं। इस अभियान को कबीर मठ की सभी शाखाओं ने भी समर्थन दिया है। इस अभियान से पद्म विभूषण पं. छन्नू महाराज, डॉ. काशीनाथ सिंह, राजन-साजन मिश्रा जैसे कला और साहित्य के साधक भी जुड़े।
शादी-व्याह में चल रहे दहेज़ और दिखावे के खिलाफ भी हमारा अभियान खूब चर्चित रहा है। अभियान से बेटियों को बराबर का हक़ देने की बात भी जुड़ी है। स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने का हमारा अभियान स्थानीय खान-पान से लेकर कला, संस्कृति, पर्यटन आदि को भी बढ़ावा देगा। आजमगढ़ से हैं तो अपने ड्रॉइंग रूम में निज़ामाबाद की पॉटरी सजाएं, मिर्ज़ापुर के हैं तो चुनार का बरतन घर में हो, आंबेडकर नगर से हैं तो टांडा का, और मऊ से हैं तो मऊ का हैंडलूम शरीर पर सजे ही जैसे अभियान लोगों को आकर्षित कर रहे हैं। प्रतापगढ़ से हैं तो बेल्हादेवी की तस्वीर या ग़ाज़ीपुर से हैं तो गंगा-गोमती के संगम की छवि आपकी बैठके में हो ही, जौनपुर और गाज़ीपुर जाइए तो इत्र और गुलकंद ढूंढ लीजिए ,आजमगढ़ जाएं तो कभी आंवक और ब्रह्मबाबा भी हो आइए , बैंकाक ही नहीं कभी सुरहा ताल को भी पर्यटन के लिए चुन लीजिए, जैसे अभियानों में नयापन भी है, और मिट्टी से जुड़ने की पुकार भी।
अपने कामों को याद करने के सिलसिले में १४ अक्टूबर, २०१८ को जौनपुर, टीडी कालेज के बलरामपुर सभागार,में हुए कार्यक्रम को जरूर याद करना चाहेंगे। उस दिन डॉ. रीता बहुगुणा जोशी को जिनने सुना, वे उस सुने को जीवन भर नहीं भूल पाएंगे। अपनी भाषा और अपनी बोली को महत्व देने की अपील करते हुए उन्होंने लोकरत्न भिखारी ठाकुर के लिखे नाटकों की इतनी गहरी विवेचना की कि उसे सुन कर भोजपुरी के जाने-माने विद्वान भी दंग रह जाएं। ऐसा उस किस्म की बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनने से हुआ। पू.वि.प्रतिष्ठान इसी तरह की उत्प्रेरणा का नाम है।
भारतीय भाषाओं को मज़बूत करने और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए संस्था द्वारा लगातार अभियान चलाया जा रहा है,और साहित्यकारों, पत्रकारों और राजनेताओं, भाषाविदों से संवाद भी कायम किया जा रहा है। संयोग से नयी शिक्षा नीति ने भी उन्हीं संकल्पनाओं को मज़बूत किया है। संस्था ने डॉ. धर्मवीर भारती के जन्मदिन २५ दिसंबर को भारतीय भाषा स्वाभिमान दिवस के रूप में चिह्नित करते हुए उसे भारतीय भाषाओं के बीच सेतु बनाने और हिंदी को राष्ट्रभाषा बंनाने के संकल्प दिवस के रूप में चुना है। साहित्य और समाज को मज़बूती से जोड़ने के लिए संस्था मराठी साहित्य की तर्ज़ पर हिंदी साहित्य की दिंडी और पालखी भी निकाल रही है,और दूसरी संस्थाओं को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। संस्था द्वारा हिंदी साहित्य की पहली दिंडी और पालखी ७ अप्रैल, २०१९ को कांदिवली, मुंबई,के सरदार वल्लभ भाई पटेल स्कूल से सावित्री देवी हरिराम अग्रवाल इंटरनेशनल स्कूल तक धर्मयुग की याद’ कार्यक्रम में निकाली गयी जिसमें जिसमें श्रीमती पुष्पा भारती समेत हिंदी के कई जाने-माने साहित्यकारों ने भाग लिया। इस कड़ी में ९ अगस्त, २०१९ को मुंबई मराठी पत्रकार संघ में हिंदी और मराठी भाषा और साहित्य के बीच परस्पर संवाद बढ़ाने को लेकर भी बड़ी उल्लेखनीय बैठक हुई। जिसमें हिंदी, मराठी और उर्दू के कई नामचीन विद्वानों ने भाग लिया। उन्होंने भारतीय भाषाओँ के बीच संवाद बढ़ाने और हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए काम करने के लिए भी सन्नद्धता जताई। भारतीय भाषाओं की उपयोगिता और एकसूत्रता हमने ऋग्वेद के नदिस्तुति सूक्त की तरह की कल्पित की है। जो भारतीय भाषाएं अव्यवहृत होने से मरने की कगार पर हैं, हम उन्हें भी संरक्षित करने का प्रयत्न करना चाहते हैं। उनमें मानव जीवन का एक बड़ा इतिहास दर्ज़ है।
समाज में आयी संवादहीनता को तोड़ने के लिए संस्था द्वारा चलाये गए सम्वाद कार्यक्रम भी खूब उपयोगी हैं, और लम्बे समय तक याद किये जाएंगे। मुंबई विश्वविद्यालय के आईसीएसएसआर सभागार में २६ मार्च २०१४ को आयोजित सभा में मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और राज्य सभा सांसद डॉ. भालचंद्र मुंगेकर ने जब यह सवाल खड़ा किया कि `आज भी यदि हम जाति-पांति के आधार पर भेद-भाव करते हैं, तो क्या हमें यह अन्याय और अपराध नहीं लगता?’ तो सभा काफी देर के लिए सुन्न हो गयी। ऐसी ही सुन्नता तब भी उठी, जब जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. अभय पेठे ने पूछा कि – `मैं अर्थशास्त्र के लिहाज से यदि कोई व्याख्या कर रहा हूं तो क्या वह इसलिए बेईमान और अविश्वसनीय करार दी जानी चाहिए क्योंकि उस व्याख्या को करने वाला मैं जाति से ब्राह्मण हूं?’ बहुत सारे ऐसे जटिल सवाल हैं जिन पर हमारी समझ है कि पू.वि.प्रतिष्ठान जैसे निष्पक्ष, ईमानदार और प्रगतिशील मंच से विचार करना संभव होगा। बिड़ला कॉलेज, उल्हासनगर में १४,अप्रैल, २०१३ को संस्कृतिकरण के मुद्दे पर भी ऐसी ही एक सभा आयोजित हुई। जिसकी सुन-गुन आज भी सुनायी देती है। इस सभा को सम्बोधित करते हुए मुंबई के पूर्व पुलिस आयुक्त श्री एम एन सिंह और महाराष्ट्र के पूर्व गृह सचिव (प्रमुख) श्री ए पी सिन्हा ने कहा- `यदि कोई अपने को किसी जाति या जाति समूह का हिस्सा मानता है तो वह उस जाति या जाति समूह का हिस्सा है, जिसे वह मानता है।’ यह वैसा ही उत्तर है जैसे यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में जाति के सवाल पर युधिष्ठिर ने कर्म को याद किया था।
चेम्बूर, मुंबई में ६ जुलाई, २०१५ को के स्टार मॉल में हिन्दू-मुस्लिम संबंधों को लेकर आयोजित बातचीत में सीधी आवाज उठी कि जो बात उचित है, न्यायपूर्ण है,और सभ्यता के आधुनिक तकाजों को पूरा करती है, उसका सम्मान किया जाना चाहिए। हिन्दू हों या मुस्लिम, यह बात सभी पर समान रूप से लागू होनी चाहिए।
इन सभाओं के आयोजन का पू.वि.प्रतिष्ठान को समुचित प्रतिसाद भी मिला है। २५ अगस्त, २०१८ को गांधी अध्ययन पीठ सभागार, काशी विद्यापीठ में आयोजित बातचीत में जाने-माने विद्वान लेखक-प्राध्यापक डॉ. काशीनाथ सिंह ने कहा- `आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिसे विरुद्धों का सामंजस्य कहा है, पू.वि.प्रतिष्ठान ने इस सभा में वह सामंजस्य स्थापित किया है। काशी के विभिन्न विचारधाराओं के वे विद्वान, जो आम तौर पर आपस में कभी एक साथ नहीं बैठते, जिनके बीच आम तौर पर कोई संवाद नहीं होता, यह कितना सुखद है कि पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान के मंच पर वे सभी एक साथ उपस्थित हैं, और अश्लीलता के खिलाफ साहित्य और संस्कृति के संरक्षण के लिए एक मत हो कर प्रस्ताव पास कर रहे हैं। ‘ डॉ. काशीनाथ सिंह की यह उक्ति हमारे लिए अच्छे काम की दुनिया की सबसे बड़ी सनद है।
संस्था ने संस्कृति कर्मियों का सम्मान करने, उनकी स्मृति को संजोने, और नवलेखन को प्रोत्साहित करने का भी काम किया है। नवलेखन को सम्पादित भी किया गया है। साहित्य के कार्यक्रमों में बोलना चाहने वालों के लिए स्पीकर्स कार्नर जैसे प्रावधान भी किये हैं। बागवानी को बढ़ावा देने के लिए जौनपुर के राजेपुर खजुरी गांव में महोगनी के प्लांटेशन भी कराये गए हैं।
पूर्वांचल इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज और हिस्टोरिकल रिसर्च
सामाजिक मुद्दों के अध्ययन-मनन और क्षेत्रीय इतिहास लेखन को बढ़ावा देने के लिए संस्था द्वारा पूर्वांचल इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज और हिस्टोरिकल रिसर्च नाम का एक केंद्र प्रस्तावित है। इस केंद्र को संस्था से जुड़े कुछ लोगों द्वारा वेदों और पुराणों को लेकर पहले से किये जा रहे अध्ययन से जोड़ दिया गया है। वेदों और पुराणों की व्याख्या का यह काम अद्भुत और अकल्पनीय है। इससे पूरी दुनिया के प्राचीन इतिहास और पुरातत्व की जानकारी मिल रही है। तथा जिन धर्मों, संस्कृतियों, सभ्यताओं को किन्हीं कारणों से मिटा दिया गया या जो खुद कालक्रम के चलते मिट गयी थीं, उनके बारे में भी उपयोगी जानकारी मिल रही है। इससे कई-कई देशों, समूहों और जातियों को उनका खोया इतिहास मिलेगा। दुनिया के कई हिस्सों में अपनी जड़ों को जानने-समझने के जो आन्दोलन चल रहे हैं, उन्हें भी पर्याप्त अंतर्दृष्टि मिलेगी।
इस अध्ययन का शोध कार्य लगभग पूरा है। हमें उम्मीद है कि इस काम के सामने आने के बाद धर्म, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्व से जुड़ी बहुत सारी अवधारणाओं में क्रांतिकारी बदलाव आएगा। पूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर की प्रेरणा से शुरू किया गया यह काम भारत की अनमोल थाती साबित होगा। और देश और दुनिया की सांस्कृतिक समझ को अभूतपूर्व विस्तार देगा।
रामायण और महाभारत से जुड़े स्थलों को लेकर भी बहुत वैज्ञानिक ढंग से कार्य किया जा रहा है। जिसे यूरोप के इतिहास का अंधायुग कहते हैं, रामायण से जुड़ी शोध उस ज़माने पर भी रोशनी डालेगी। और महाभारत को लेकर किया जा रहा काम सिंधु घाटी सभ्यता से भारतीय इतिहास की शुरुआत होने के भ्रम को दूर कर वैदिक साहित्य से लेकर आज तक के इतिहास को एक अनवरत श्रृंखला के रूप में पिरोयेगा। इस केंद्र से सोच-विचार, वैचारिकता को आगे बढ़ाने और सामाजिक व नैतिक मूल्य बोध आदि को लेकर भी काम किया जाएगा।
संस्था नागरिक अधिकारों और न्याय और औचित्य जैसे मुद्दों के समर्थन में सक्रिय है। इस सिलसिले में कई बहुत प्रभावी संवाद भी आयोजित किये गये हैं, और अभियान भी चलाये गए हैं। पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान ने तिब्बत व सिंकियांग की आज़ादी का सवाल भी उठाया है, और समय-समय पर राष्ट्रीयता के प्रति भी लोगों को सचेत किया है। जल संरक्षण, नदियों को बचाने, भारतीयता के विस्तार जैसे मुद्दों पर भी पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान ने सक्रियता दिखाई है।
ये कुछ बानगियां हैं, जिन कार्यों से पूर्वांचल विकास प्रतिष्ठान जुड़ा है, या जो उसकी ज़ेहनियत में हैं।
इसलिए पूर्वांचल प्रथम पू.वि.प्रतिष्ठान की स्थापना पूर्वांचल और देश के दूसरे प्रवास-प्रव्रजन प्रभावित इलाकों के आर्थिक-औद्योगिक विकास और उसके लिए जरूरी सांस्कृतिक बदलाव के मंच के रूप में की गयी है। इस दिशा में सरकार और समाज द्वारा जो प्रयत्न किये जा रहे हैं, उनका सन्देश दूर तक ले जाने और उन्हें आपस में पिरोने की जरूरत है। उनकी दिशा और गति भी ठीक रखी जानी चाहिए। प्रवास और प्रव्रजन से जुड़ी देश के अन्य इलाकों की समस्याएं भी तकरीबन एक जैसी हैं। इन्हें भी एक साथ जोड़ कर देखे जाने की जरूरत है। फिर, पूर्वांचल के आर्थिक-औद्योगिक विकास और बढ़ाव को लेकर जिन भी बड़े मंचों पर बात उठती है, हर जगह यह बात उठती ही है कि ठोस काम करने के लिए यथेष्ट डेटाबेस नहीं है। यह कमी संभवतः किये गए काम की कमी और विभिन्न क्षेत्रों में किये गए काम को एक-दूसरे से मिला कर न देखने से आयी है। इन जरूरतों को पूरा करने के लिए एक स्वतंत्र, समझदार और निष्पक्ष , तथ्यपरक और वैज्ञानिक मीडिया की जरूरत है।
इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए पू.वि.प्रतिष्ठान द्वारा पूर्वांचल प्रथम पत्रिका का नियोजन विकास और बढ़ाव से जुड़ी खबरों, विचारों और विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे शोध, सर्वेक्षणों, खोजों और नतीजों को एक साथ रखने, संजोने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए किया जा रहा है। यह पूर्वांचल के आर्थिक-औद्योगिक विकास और उसके लिए जरूरी सांस्कृतिक बदलाव का मीडिया मंच है। और इसका घोषवाक्य- पूर्वांचल को देश और दुनिया में अव्वल बनाने की मीडिया मुहिम-है। इस पत्रिका का नियोजन किसी भी किस्म की दलगत राजनीति से अलग होकर किया जाएगा। इसके डिजिटल और प्रिंट दोनों प्रारूप होंगे। अभी पत्रिका डेढ़ महीने के अंतराल पर निकलेगी। अगले साल की शुरुआत से इसे मासिक कर दिया जाएगा। आप[ेक्षित न्यूज़ नेटवर्क बनते इसे पाक्षिक करने पर भी विचार किया जायेगा। वेबसाइट रोज के घटनाक्रमों से भी जुडी रहेगी। इसके लिए इसे न्यूज़ अपडेट, लेटेस्ट न्यूज़ और इसी नाम के यूट्यूब चैनल से जोड़ा जा रहा है।
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ओम प्रकाशसचिव, पू.वि. प्रतिष्ठान व संपादक, पूर्वांचल प्रथम